Photo credit: Pat McDonald

एक सैनिक अधिकारी अपनी नव-विवाहिता पत्नी के साथ समुद्री यात्रा कर रहा था। अकस्मात एक भयानक तूफ़ान आ गया। सागर की लहरें आसमान छूने लगीं। ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो सामने साक्षात मौत खड़ी हो। सभी भय से कांपने लगे। किन्तु सैनिक के चेहरे पर भय का लेशमात्र भी चिन्ह नहीं था, वह सम्पूर्ण स्वस्थता के साथ खड़ा रहा।

उसकी पत्नी ने साश्चर्य पूछा, “इस भयानक तूफ़ान में भी तुम्हें जरा भी डर नहीं लग रहा है!”

सैनिक ने एक क्षण अपनी पत्नी के सामने देखा और झटके के साथ अपनी रिवाल्वर उसके सामने तानते हुए बोला,
“क्या तुम्हें मुझसे भय लग रहा है?”
“नहीं तो!”
“क्यों?”
“क्या आप मेरे दुश्मन हैं, जो आपके हाथ में रिवाल्वर देख कर डर जाउं!”

रिवाल्वर नीचे करते हुए सैनिक ने कहा, “जिस प्रकार मेरे हाथ में रिवाल्वर थी, उसी प्रकार भगवान के हाथ में तूफ़ान है। तुम जिस प्रकार मुझे अपना समझ कर मेरे रिवाल्वर से नहीं डरीं, उसी प्रकार मैं भगवान को अपना समझता हूं। इसलिये भगवान से कैसा भय ! वह जो करेगा, वह हमारे शुभ के लिये करेगा।

आज अपने पिता जी की संचित पुस्तकों को उलटते-पलटते ‘भारतीय विद्या भवन’ की ‘भारती’ पत्रिका के मार्च १९६५ के अंक में यह घटना-प्रसंग पढ़ा। जो पाया उसे बाँट दूँ- इसी अन्तःप्रेरणा से यह कथा प्रस्तुत की है।

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Last Update: November 13, 2022