मैं जिधर भी चलूँ
मैं जानता हूँ कि राह सारी
तुम्हारी ही है, पर
यह मेरा अकिंचन भाव ही है
कि मैं नहीं चुन पा रहा हूँ अपनी राह।

मैंने बार-बार राह की टोह ली
पर चला रंच भर भी नहीं, टिका रहा
मैं जानता हूँ कि दस-दिगंत में
तुम्हारा बधावा बज रहा है, पर
यह मेरे कान ही हैं जो इस ध्वनि को
नहीं सुन पा रहे हैं।

मैं क्या करुँ अपनी इस नींद का
कि तुम बार-बार
खटका देते हो मेरे द्वार, पर
यह आँखें खुलती ही नहीं।
मैं महसूस करता हूँ कि
अनगिनत गीतों का खजाना
पठाते हो तुम मेरे लिए, पर
मैं उन्हें गुनगुना नहीं पाता क्योंकि
मुझे उनकी धुन नहीं मालूम।

मैं ललचा रहा हूँ
कि तुम्हारे पाँव निरख लूँ
और खिंचा चला जाऊं तुम्हारी ओर,
और जबकि मैं जानता हूँ कि
तुम अवश बाँध जाते हो प्रेम-पाश में,
मैं अभागा
वह डोर ही नहीं बुन पा रहा हूँ।

Categorized in:

Poetry, Ramyantar,

Last Update: June 19, 2021

Tagged in:

,