मन का चैन है जिसके लिये खूब तैयारी करता हूँ। कुछ पाने, न पाने की बेचैनी, जीवन की शान्ति और अन्तर्भूत आनन्द को पाने की छटपटाहट में कई बार मन उद्विग्न हो जाया करता है। अपना आन्तर जीवन तनाव और बेचैनी का जीवन महसूस होता है, जो पीड़ित है, असुरक्षित है।

आसपास देखता हूं- सब कुछ आगे बढ़ रहा है- द्रुतगति से। मनुष्य को महत्व देने वाली अनेक उपलब्धियां मनुष्य ने प्राप्त कर ली है। सब कुछ व्याख्या, तर्क, बुद्धि के आश्रय में खो गया है- मैं भी अपनी इसी एकतान बुद्धिगामी अवस्था में मदमाता फिर रहा हूं। बहुत कुछ प्राप्ति की इच्छा, या कुछ अपने हिसाब से घटता जाय इसकी अपेक्षा- सब कुछ ने मन का चैन हर लिया है।

बार-बार यही लगता है कि मनुष्य के दुख और उसके निरानन्द के अनेक कारणों में से सम्भवतः एक कारण है उसकी यह इच्छा कि वस्तुओं को उसके मन के अनुसार ही घटित होना चाहिये, और जब ऐसा नहीं होता तो पीड़ा अपना सर उठा लेती है। ऐसे कठिनतम क्षणों में कई बार दार्शनिक ’एपिक्टेटस’(Epictetus) के यह शब्द प्रबोध देते जान पड़े हैं, समझाते हुए मिले हैं-

उन चीजों की ओर मत देखो, जिन्हें तुम अपनी चाह के अनुसार घटित होने देना चाहते हो, बल्कि चाहो कि वस्तुएं वैसे ही घटित हों, जैसी वे हैं, और तब तुम जीवन के प्रशान्त प्रवाह का अनुभव करोगे।

Epictetus: Greek Stoic Philosopher