एक महात्मा हैं, उनके पास जाता रहता हूँ। महात्मा से मेरा मतलब उस गैरिकवस्त्र-धारी महात्मा से नहीं, जिनके भ्रम में इस पूरी दुनियाँ का निश्छल मन छला जाता है। महात्मा से मेरा अर्थ महनीय आत्मा से है। बात-बात में उन्होंने कहा- बेटा, खिलाने वाला बन! अभीं कुछ समझ भी नहीं पाया था कि उन्होंने फ़िर आत्मीयता से कहा- “मन छोटा नहीं है इसलिये थोड़े में नहीं होता।” 

बाद में उसका रहस्य स्पष्ट हुआ। उन्होंने अपरिग्रह और उत्सर्ग को जीवन-मंत्र बताया था। लगे हाथ उन्होंने एक कहानी कही थी। दानव ब्रह्मा से झगड़ रहे थे कि आपने देवताओं का हमेशा पक्ष लिया है और हमारी उपेक्षा की है, जबकि हम सभी आपके पैदा किये हैं। काफी उलझन में डाला उन्होंने और ब्रह्मा जी ने दूसरे दिन एक टेस्ट लेने के लिये दोनों दलों को बुलाया। दोनों के सम्मुख स्वादिष्ट भोजन परोसा गया। खाने के समय ब्रह्मा जी ने कहा, “एक शर्त है। हाँथ खाते समय मुड़ने न पाये।” दानव अपने मुँह में स्वादिष्ट पकवान लम्बे हाथों से फ़ेंकते रहे और वह गिर कर बेकार होता गया। वे भूखे रह गये। देवता पंक्ति में बैठे अपने बगल वाले के मुँह में कौर डाल देते, और उनके बगल वाला उनके मुंह में। इस तरह उनका पेट भर गया।

दूसरों को देने वाला स्वयं पा जाता है। स्वयं का पेट भरने का यत्न तो कीट पतंगे तक करते हैं। आदमी की आदमीयत किसमें है?  मुझे सार्वभौम मानवता का पाठ मिल गया कि सबका पेट भरे, इसकी सनक सवार होनी चाहिये। एक रोटी में भी आधी रोटी किसी की हथेली रख कर मिल बाँट कर खा लिया तो मन संतुष्ट हो जाय, किसी की प्यास बुझा दी तो अपनी प्यास बुझ जाय, यह भाव ही तो मनुष्यता की पहचान है।  शेक्सपियर ने ऐसी मानव-हृदय की पिघलन को देवता का धन कहा है-

It blessed him that gives

It blesseth him that gives and him that takes ;
It is mightiest in the mightiest …..
It is an attribute to God himself.

Mercy: Shakespeare

मन विशाल हो तो दानवी वृत्ति का विनाश होता है ।