हमेशा बाहर की खिड़की से एक हवा आती है- भोर की हवा, और चुपचाप कोई न कोई संदेश सुना जाती है। भोर की नित्य शीतलता से सिहर गयी यह हवा क्या कहने, समझाने आती है रोज सुबह, पता नहीं? पर फूल-पत्तियों, वृक्षों, वनस्पतियों, दिग-दिगन्तों से सानुराग गलबहियाँ करती यह हवा मेरे सोये मन को, मस्तिष्क को चेतन कर चिंतन का एक छोर थमा जाती है।

भोर की हवा और मेरी नियति कैसे जुड़ी है

सोचता हूँ यह हवा गति है। सापेक्ष गति ही जीवन है। जीवन एक नियति। जीवन की यह नियति- दिन, महीने की नियति, संवत्सर की नियति या एक पूरे युग की नियति है। हर क्षण और हर युग अपनी नियति में अन्य क्षणों और युगों से अलग होता है। जैसे अभी हवा के स्पर्श से उपजी अनुभूति की नियति, या विशेष क्षण के अपर हो जाने के बाद निर्मित हुए इस लेखन-क्षण की नियति। और इस सबके अन्दर या बाहर चलता रहता है आदमी- मेरी तरह- अपनी नियति के साथ या अपनी नियति पर ही कदम रखता हुआ।

अभी जब यह लिख कर उठूँगा, तो कुछ देर बाद नहा-धो कर कुछ श्लोक पाठ करुँगा। कई बार कई अवसरों पर अनगिनत श्लोकों का पाठ भर कर लिया करता हूँ। सोचता हूँ, यह श्लोक का पढ़ भर लेना भी एक कार्य है, एक प्रयोजन- अच्छी और बुरी नियति से जुड़ी एक कथा बनती जाती है इस श्लोक पठन से।

अनेकों प्रातः-चेतन मनुष्यों द्वारा पढ़े जाते गये ये श्लोक युगों-युगों से पढ़े जा रहे होंगे, और धीरे-धीरे इस पृथ्वी के लिये पृथ्वी पर ही घटित होने वाली एक कथा निर्मित हो गयी होगी। यह कथा शाप की कथा होगी या फिर वरदान की भी। ऐसा भी होता होगा कि कई बार यह शाप और वरदान की कथायें एक दूसरे का प्रतिबन्ध और प्रतिकार्य बन जाती होंगी, और फिर निर्मित होती होगी श्लोक पठन से निर्मित कथा की नियति।

अभी मैं चला- अपनी नियति वहन करता, समष्टिगत नियति से अपनी व्यष्टिगत नियति को बटोरता- रोज की तरह।