K Shivram Karanth

के० शिवराम कारंत Kota Shivaram Karanth – भारतीय भाषा साहित्य का एक उल्लेखनीय नाम, कन्नड़ साहित्य की समर्थ साहित्यिक विभूति, बहुआयामी रचना-कर्म के उदाहरण-पुरुष!  सर्जना में सत्य और सौन्दर्य के प्रबल जिज्ञासु कारंत जीवन को सम्पूर्णता और यथार्थता में निरखने की निरंतर चेष्टा अपने कर्म में करते रहे। और इसीलिये ज्ञान के बहुविध क्षेत्रों में उनका प्रवेश होता रहा, कला के अनेक आयाम उन्होंने छुए। अपने प्रिय पाठकों की दृष्टि में एक स्वाधीन, निर्भय और निष्कपट व्यक्तित्व का नाम है के० शिवराम कारंत। साहित्य की अनेकों विधाओं में उनका समर्थ लेखन उन्हें एक विराट सर्जक की प्रतिष्ठा देता है। उत्कृष्ट उपन्यासकार, कुशल नाटककार, अन्यतम शोधकर्ता व आलोचक, प्रशंसित शब्दकोशकार व विश्वकोशकार, बहुचर्चित आत्मकथा लेखक व महनीय सम्पादक के रूप में डॉ० के० शिवराम कारंत कन्नड़ साहित्य को सार्वत्रिक प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं।

K Shivaram Karanth

के0 शिवराम कारंत : K. Shivaram Karanth

जन्म: १० अक्टूबर, १९०२, कोटा, कर्नाटक; मातृभाषा: कन्नड़; व्यवसाय: स्वतंत्र लेखन; पुरस्कार / सम्मान: डी०लिट० (मानद, कर्नाटक वि०वि०, मैसूर वि०वि०, मेरठ वि०वि०), पद्म भूषण (आपातकाल में लौटा दिया), साहित्य अकादमी पुरस्कार-१९५९, भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार-१९७७ एवं अन्य कई पुरस्कार/सम्मान; प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ: नाटक- गर्भगुडि, एकांत नाटकगलु, मुक्तद्वार, गीतानाटकगलु,विजय, बित्तिद बेले, मंगलारति, उपन्यास: चोमन दुड़ि, मरलि मण्णिगे, बेट्टद जीव, मुगिद युद्ध, कुडियर कुसु, चिगुरिद कनसु, बत्तद तोरे, समीक्षे, अलिद मेले, ओंटि दानि, मूकज्जिय कनसुगलु (ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त), केवल मनुष्यरु, मूजन्म, इळ्येम्ब, कन्निडु कणारू, कहानी-संग्रह – हसिवु, हावु, निबंध- ज्ञान, चिक्कदोड्डवरू, हल्लिय हत्तु समस्तरु, कला-विषयक- भारतीय चित्रकले, यक्षगान बयलाटा (साहित्य अकादेमी), चालुक्य वास्तुशिल्प, कला-प्रपंच, यक्षगान, भारतीय शिल्प, आत्मकथा- हुच्चु मनस्सिन हत्तु मुखगलु, विश्वकोश-शब्दकोश,विज्ञान विषयक- बाल प्रपंच, विज्ञान प्रपंच(चार खंड) विचित्र खगोल, हक्किगलु, अन्य- जीवन रहस्य, जानपद गीते, विचार साहित्य निर्माण, बिडि बरहगलु  ।

कोटा शिवराम कारंत का लेखन कर्म

लेखन कारंत जी के लिये अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करना है। समग्र जीवन-दृष्टि के धनी कारंत वर्तमान को विगत के स्वीकार के साथ जीना चाहते हैं। पुरानी परिपाटी से उदाहरण लेना और फिर उसे वर्तमान जीवन की कसौटी पर कसना, प्रचलित मान्यताओं को ज्यों का त्यों न स्वीकारना बल्कि सातत्य में उनकी प्रासंगिकता का पुनरीक्षण करना आदि कारंत जी के व्यक्तित्व व उनकी सर्जना की अन्यतम विशेषताएं हैं, और इसीलिए वे विद्रोही हैं। विद्रोही हैं तो साहसी भी हैं- चौंतीस वर्ष की उम्र में तीन खण्डों के बाल-विश्वकोश का सम्पादन, उनतालीस वर्ष की उम्र में एक लघु शब्दकोश का निर्माण, सत्तावन वर्ष की उम्र में विज्ञान आधारित चार खण्डों का विश्वकोश विज्ञान प्रपंच का प्रणयन, तीन खण्डों की कृति ’भारतीय कला और मूर्तिकला’ की रचना आदि।

डॉ० कारंत की प्रत्येक रचना अन्याय के विरुद्ध आग्रह रखने का भाव अपने अन्तर में सँजोये प्रस्तुत होती है। न्याय और एकाधिकार की न्यून उपस्थिति भी उनका अन्तर भड़का देती है। वस्तुतः डॉ० कारंत की सम्पूर्ण रचना-गतिविधियों का केन्द्र मनुष्य और उसका समग्र व्यक्तित्व है और इसीलिये वे एक परिबुद्ध मानवतावादी के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं।

मानव की सम्पूर्ण अनुभूति को अभिव्यक्त करती लेखनी यह उदघोषित करती है कि साहित्य कुछ और नहीं वस्तुतः इस जीवन का ही प्रतिफल है। डॉ० रणवीर रांग्रा से बातचीत करते हुए डॉ० कारंत ने कहा है-

“अपने आसपास के प्राणियों के प्रति संवेदनशील रहते हुए ही जीवन जीना चाहिये। यदि मैं अपने पर्यावरण के प्रति उदासीन रहता हूँ तो मेरा जीना रुक जाता है। जब भी मैं अतीत को मुड़ कर देखता हूँ, कृतज्ञता की भावना से अभिभूत हो उठता हूँ। मैं अपने लोगों का ऋणी हूँ- उनका भी जो जीवित हैं और जो बीत गये हैं उनका भी। मैं सम्पूर्ण सृष्टि का ऋणी हूँ जो मेरे, मेरे समकालीनों और मेरे पूर्वजों सरीखे मनुष्यों का भार वहन कर रही है। यदि हमारे पूर्वजों ने हमें अपना चिन्तन, ज्ञान और अनुभव न दिया होता तो हम अपनी संस्कृति के बहुत बड़े दाय से वंचित रह जाते। मुझ पर इतने लोगों का ऋण है कि मुझे लेखन के माध्यम से अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध कर अपना कर्त्तव्य पूरा करना चाहिये- मेरा वह लेखन वर्त्तमान और विगत तथा दूर और निकट के जीवन के प्रति योगदान के रूप में चाहे कितना ही अकिंचन क्यों न हो!”

रणवीर रांग्रा : भारतीय साहित्यकारों से साक्षात्कार

स्वयं लेखक के शब्दों में उनकी पुस्तकों पर एक दृष्टि

“मैं अपने मन को पागल क्यों कहता हूँ? इसका कारण यह नहीं है कि यह पागलपन नहीं चाहता बल्कि उसे मैं पसन्द करता हूँ। ऐसे पागलपन के कारण अनेक ऐसे साहस करके जिन्हें करना नहीं चाहिए, मुझे अपनी और दुनिया का पागलपन समझ में आया है।… विष्णु के यदि दस अवतार हैं तो मेरे ध्येय ने सोलह अवतार लिये। देशप्रेम, स्वदेशी प्रचार, व्यापार, पत्रकारिता अध्यात्म साधना, कला के विभिन्न रूप फोटोग्राफी, नाटक, नृत्य, चित्रकला, वास्तुकला, संगीत सिनेमा-इतना ही नहीं समाज- सुधार, ग्रामोद्धार, शिक्षा के नये नये प्रयोग, उद्योग यह सब मेरे कार्य क्षेत्र रहे। और भी नये-नये प्रयोग चल ही रहे हैं।…. केवल अपनी खिड़की से बाहर झाँकनेवालों को भले ही इन सब परिवर्तनों में कोई परस्पर- सम्बन्ध न दीखे पर वास्तविकता ऐसी नहीं है। इस यात्रा में कोई और व्यक्ति यदि मेरे साथ होता तो उसे पता चलता कि यह सब यात्रा के अलग-अलग पड़ाव हैं।…”

“मेरी पुस्तक ’मूकज्जी’ में यौन के मानवीय, अतीन्द्रिय व अन्य विविध पक्षों की चर्चा है, जो हमारे अतीत इतिहास में विकसित होते रहे गुहा-मानव से प्रारंभ होकर वर्तमान युग तक के लम्बे इतिहास-काल को समेटती है। यहाँ चर्चा है यौन की सर्जक शक्ति की, यौन के धार्मिक प्रतीक के रूप की, वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में यौन-स्थिति की। इन सबका तर्क-संगत पद्धति से विवरण है- यौन, एक सर्जक-शक्ति; यौन, एक धार्मिक प्रतीक; यौन, देवी-देवता के रूप में; यौन पौराणिक गाथाओं में; यौन वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में आदि।”


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