मुक्ति पर इतना विवाद, 
खुलेपन पर इतना हंगामा क्यों ? 

युग बीते, पर
क्या तुम्हारी लोभ से ललचायी आँखों से 
पूर्व-राग का नशा नहीं उतरा ? 
शाश्वत कुंठा या कायरता
हो गयी न अभिव्यक्त !
संस्कार दुबक गया
शिक्षा का, समाज का
जग गई न निसर्ग की सोई भूख
हो गये न ’पुरुष’
जिसे स्त्री का उन्नयन नहीं,
मनस-पूजन नहीं
देंह-गठन, त्वचा-संवेदन चाहिए !

मैं आवरण में थी
बस इसलिये ही
कि निरावृत होकर
नहीं करना चाहती थी
निखिल सृष्टि का सौन्दर्य मलिन,
रूप को ढांक-छिपा रखना चाहती थी
माया-मेघ की ओट
कि पुरुषत्व के जीवन में
भर न जाय ग्लानि,
मुक्ति का स्वर्ग-द्वार
रखती थी बंद सदा
कि उसकी झलक से संसार का कतृत्व
मोहांध विमुख न हो जाय ,
कंठ में ही
ठहरा देती थी अपना संगीत
कि उसकी चाह में मतवाले बन
तुम छानो ख़ाक
क्षिति-तल की,
अघा न जाओ तत्क्षण !

पर मेरे इस निष्पाप मनोयोग की
खूब परीक्षा ली है तुमने,
नग्न शरीर की शारीरिकता पर उलझे हो,
उसके पीछे की सारभावना भुलाकर ।

पर, अब
अतीत की नियति-रेखाओं को लुप्त कर
मैं नव्य-जीवन की राह लूँगी,
सच की आधारशिला पर गढूँगी
नव नन्दन-वन,
खुद के रूप पर रीझूँगी नहीं
मुक्त करूँगी स्वयं को
’खुद’ के कारागृह की दीवार तोड़,
विचरूँगी तितली-सी आनन्द-स्वच्छंद,
मधुहास-सी खिलूँगी,
बदलूँगी वस्तु का सन्दर्भ
(क्योंकि बदलता है न
सन्दर्भ-भेद से अर्थ !)
और तत्त्व-मुक्त दीख पड़ूँगी…
मतलब..
तब ’नारी’ हो जाउँगी
पूरक प्रेरणा भी, चुनौती भी !