’सौन्दर्य-लहरी’ संस्कृत के स्तोत्र-साहित्य का गौरव-ग्रंथ व अनुपम काव्योपलब्धि है । आचार्य शंकर की चमत्कृत करने वाली मेधा का दूसरा आयाम है य...
’सौन्दर्य-लहरी’ संस्कृत के स्तोत्र-साहित्य का गौरव-ग्रंथ व अनुपम काव्योपलब्धि है । आचार्य शंकर की चमत्कृत करने वाली मेधा का दूसरा आयाम है यह काव्य । निर्गुण, निराकार अद्वैत ब्रह्म की आराधना करने वाले आचार्य ने शिव और शक्ति की सगुण रागात्मक लीला का विभोर गान किया है ’सौन्दर्य-लहरी’ में । उत्कंठावश इसे पढ़ना शुरु किया था, सुविधानुसार शब्दों के अर्थ लिखे, मन की प्रतीति के लिये सस्वर पढ़ा, और भाव की तुष्टि के लिये हिन्दी में इसे अपने ढंग से गढ़ा । अब यह आपके सामने प्रस्तुत है । ’तर्तुं उडुपे नापि सागरम्’ - सा प्रयास है यह । अपनी थाती को संजो रहे बालक का लड़कपन भी दिखेगा इसमें । सो इसमें न कविताई ढूँढ़ें, न विद्वता । मुझे उचकाये जाँय, उस तरफ की गली में बहुत कुछ अपना अपरिचित यूँ ही छूट गया है । उमग कर चला हूँ, जिससे परिचित होउँगा, उँगली पकड़ आपके पास ले आऊँगा । जो सहेजूँगा, यहाँ लाकर रख दूँगा । साभार। पहली , दूसरी, तीसरी के बाद आज चौथी कड़ी --
सौन्दर्य लहरी के यह रूपान्तरित छन्द पहले मुक्त छन्द में लिखने शुरु किए थे । बाद में अमरेन्द्र के उचकाने पर छ्न्दबद्ध लिखने का प्रयास दूसरी प्रविष्टि में दिखा आपको । टिप्पणियाँ, मेल इनबॉक्स-दोनों ने छन्दबद्ध रूप से ज्यादा छन्दमुक्त रूप को सराहा । प्रयास तो यही था कि नियमित तीन चार छन्दों की प्रस्तुति से इस ग्रंथ को सम्पूर्णतः प्रस्तुत कर दूँगा, पर अनगिन व्यतिरेकों ने राह रोकी, मैं ठहरा ही रह गया । पुनः पुनः सोचता हूँ, पुनः पुनः ठहर जाता हूँ । पुनः इस लहरी का सौन्दर्य स्मरण में आया सो मैं सायास उपस्थित हूँ इन छन्दों को प्रस्तुत करने के लिए । ढंग वही मुक्त छंदी, आपको रुचिकर लगेगा, इसलिए ।
त्वदीयं सौंदर्यं तुहिनगिरि कन्ये तुलयितुं ।कवींद्राः कल्पंते कथमपि विरिंचि प्रभृतयः ॥
यदालोकौत्सुक्यादमरललना यांति मनसा ।
तपोभिर्दुष्प्रापामपि गिरिशसायुज्यपदवीम् ॥१२॥
तुलित करने को तुम्हारा
अपरिमित सौन्दर्य अनुपम
विधातादि कवीन्द्र
किंचित कल्पनाओं में विचरते
समुद अवलोकन तुम्हारा
कर मनोगत वसुमती से
अमर ललनायें विलसतीं
सहज शिवसायुज्य पद पा
जो अगम है
जो परम दुष्प्राप्य भी
अति कठिन तप से
दर्शनोत्सुक सुरवधूटी के
परम सौभाग्य की यह
है चरम संसिद्धि
सद्यः संस्फुटित
हिमशैलजा हे! ॥12||
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नरं वर्षीयांसं नयनविरसं नर्मसु जडं ।
तवापांगालोके पतितमनुधावंति शतशः ॥
गलद्वेणीबंधाः कुचकलशविस्रस्तसिचया ।
हठात्त्रुट्यत्कांच्यो विगलितदुकूला युवतयः॥१३॥
जो जरठ वयशील
लोचन सुखदरस वंचित
महाजड़
वहाँ कायाकल्प करता
ललित कृपाकटाक्ष तेरा
स्खलित वेणीवंध
हटती कंचुकी कुचकुंभ द्वय से
भग्न होती किंकिणी
पट स्कंध से जाता सरक है
यों ललक
विगलित दुकूला
रमणियाँ, नवयौवनायें
दौड़ती उत्कंठिता उसकी दिशा में
कर्षिता-सी
यह तुम्हारी दृष्टि का फल है
कृपा करुणाकटाक्षे! ॥13॥
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क्षितौ षट्पंचाशद्द्विसमधिकपंचाशदुदके ।
हुताशे द्वाषष्टिश्चतुरधिकपंचाशदनिले ॥
दिवि द्विःषट्त्रिंशन्मनसि च चतुःषष्टिरिति ये ।
मयूखास्तेषामप्युपरि तव पादांबुजयुगम् ॥१४॥
वसुमती में छिटकती हैं
जो कि छप्पन कान्त किरणें
सलिल में बावन
अमलद्युति वह्नि में
बासठ विराजित
वायु में चौवन
बहत्तर व्योम में
मन बीच चौसठ राजती हैं
तत्व तरलित
जो कि ज्योतिर्मयी किरणें
ऊर्ध्व उनके हैं विराजित
ललित मृदु पद-कंज तेरे
(भाव यह
तुम तत्वमयि हो, तुम्हीं तत्वातीत )
सुभगे! ॥14॥
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शरज्ज्योत्स्नाशुभ्रां शशियुतजटाजूटमकुटां ।
वरत्रासत्राणस्फटिकघुटिकापुस्तककराम् ।
सकृन्न त्वा नत्वा कथमिव सतां सन्निदधते ।
मधुक्षीरद्राक्षामधुरिमधुरीणा भणितयः ॥१५॥
शरद की चाँदनी-सी
ज्योतिर्मयी तन शुभ्र आभा
खचित चन्द्र ललाम सिर पर
जटाजूट रचित मुकुट में
वराभय मुद्रा
स्फटिक मणिमाल
शोभित करतली में
पाणि पुस्तक युक्त
इस छवि का न यदि करते नमन तो
सुजन आनन से स्फुरित
किस विधि मधुर
मधु क्षीर द्राक्षा सदृश
बहती मंजुवाणी
देवि !
रुचिर स्वरुपिणी हे ! ॥15॥
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