पढ़ने के लिए बहुत दिनों से सँजो कर रखी अपने प्रिय चिट्ठों की फीड देखते-देखते वाणी जी की एक प्रविष्टि पर टिप्पणी करने चला। उस प्रविष्टि में वैवाहिक सप्तपदी का उल्लेख था, सरल हिन्दी में उसे प्रस्तुत करने की चेष्टा भी। इस वैवाहिक सप्तपदी को हिन्दी-काव्य रूप में सुनने पढ़ने की इच्छा से बाबूजी के पास पहुँचा। बाबूजी ने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर इसे हिन्दी काव्य-रूप दिया जो सुनने और समझने की दृष्टि से अत्यन्त सहज और प्रिय लगा  मुझे। इस पूरी वैवाहिक सप्तपदी (वर-कन्या वचन) को आप के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। पिछली प्रविष्टि  में कन्या वचन की प्रस्तुति बाद आज वर वचन। आभार।

वैवाहिक सप्तपदी: वर वचन

हौं गृह-ग्राम रहौं जब लौं तब लौं ही तू साज सिंगार सजौगी।
भाँतिन-भाँति के हास-विलास कुतूहल क्रीड़ा में राग रचौगी।
पै न रहूँ घर तो न अभूषण पेन्होगी तूँ परधाम रहोगी।
प्रानप्रिये ये करो प्रन तूँ हमरी पहली बतिया न तजौगी ॥१॥

श्री हरि विष्णु चतुर्भुज अग्नि औ ब्राह्मण देव की साक्षी गहौगी।
वान्धव-बंधु जे मंडप राजत औ ध्रुवतारा की ओट लहौगी।
ये हरि पावक भूसुर बान्धव औ ध्रुव पाँचो की साख रखोगी।
प्रानप्रिये ये करो प्रन तूँ हमरी दुसरी बतिया न तजौगी ॥२॥

जीवनसंगिनि, तूँ निज चित्त को मेरे हि चित्त में जोरि रखोगी।
मेरे ही तूँ मन के अनुकूल रहोगी नहीं प्रतिकूल बहोगी।
टारोगी नाहिं कहा हमरो तुम सुन्दरि मेरी ही बाट गहौगी।
प्रानप्रिये ये करो प्रन तूँ हमरी तिसरी बतिया न तजौगी ॥३॥

जा बिधि होय हमें परितोष सोई हृदयेश्वरि काज करौगी।
लीन रहौगी तूँ मेरी ही भक्ति में मेरी ही नित्य तूँ तृप्ति चहौगी।
आदर में हमरे न कुटुम्बिन की तूँ कबौं कोतहाई करौगी।
प्रानप्रिये ये करो प्रन तूँ हमरी चौथी बतिया न तजौगी ॥४॥

भामिनि, साँचहि साँच कहौं मोरि बातिन को तूँ सचेत सुनौगी।
सूनो लगै घरनी के बिना घर शांति वहीं तूँ जहाँ पै रहौगी।
‘पंकिल’ नैनन की पुतरी बिसवास करौ मेरो बाम गहौगी।
प्रानप्रिये ये करो प्रन तूँ हमरी पचईं बतिया न तजौगी ॥५॥