सौन्दर्य लहरी संस्कृत के स्तोत्र-साहित्य का गौरव-ग्रंथ व अनुपम काव्योपलब्धि है। आचार्य शंकर की चमत्कृत करने वाली मेधा का दूसरा आयाम है यह काव्य। निर्गुण, निराकार अद्वैत ब्रह्म की आराधना करने वाले आचार्य ने शिव और शक्ति की सगुण रागात्मक लीला का विभोर गान किया है सौन्दर्य-लहरी में। उत्कंठावश इसे पढ़ना शुरु किया था, सुविधानुसार शब्दों के अर्थ लिखे, मन की प्रतीति के लिये सस्वर पढ़ा, और भाव की तुष्टि के लिये हिन्दी में इसे अपने ढंग से गढ़ा। अब यह आपके सामने प्रस्तुत है। पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठीं, सातवीं, आठवीं, नौवीं के बाद आज प्रस्तुत है सौन्दर्य लहरी (छन्द संख्या 36-40) का हिन्दी रूपांतर।

सौन्दर्य लहरी का हिन्दी काव्यानुवाद

विशुद्धौ ते शुद्धस्फटिक विशदं व्योम-जनकं
शिवं सेवे देवीमपि शिवसमान-व्यवसिताम् ।
ययोः कांत्या यांत्याः शशिकिरण्-सारूप्य सरणे:
विधूतांत-र्ध्वांता विलसति चकोरीव जगती ॥३६॥
अम्ब
चक्र विशुद्ध तेरा
स्फटिक मणि सम विशद निर्मल
वहाँ अम्बर जनक शंकर
तथा शंकर के सदृश ही
व्यवसिता हो अम्ब तुम भी
शशि किरण की सरणि-सी द्युतिमान
अंतर्तिमिरहारी
उस विलसती ज्योति को
जिसको समोद निहारता है
अखिल जगत चकोरवामा  सदृश
मैं भजता
शिवे हे!

समुन्मीलत् संवित्कमल-मकरंदैक-रसिकं
भजे हंसद्वंद्वं किमपि महतां मानसचरम् ।
यदालापा-दष्टादश-गुणित-विद्यापरिणतिः
यदादत्ते दोषाद् गुणमखिलमद्भ्यः पय इव ॥३७॥
जो कि संवितमय
समुन्मीलित कमल मकरंदरस-प्लुत
उस कमल मकरंद रस के
पान में रममाण हैं जो
महज्जन के
हृदय मानस बीच में
युग हंस विचरण-शील हैं जो
अष्टदश विद्या विवर्धन की
जहाँ परिणति सँवरती
मैं किन्हीं उन हंस द्वंद्वों का
स्मरण करता कृपामयि!

तव स्वाधिष्ठाने हुतवहमधिष्ठाय निरतं
तमीडे संवर्तं जननि महतीं तां च समयाम् ।
यदालोके लोकान् दहति महसि क्रोध-कलिते
दयार्द्रा या दृष्टिः शिशिरमुपचारं रचयति ॥३८॥
चक्र स्वाधिष्ठान तेरा
अग्निमय  आश्रयाधिष्ठित
हैं जहाँ संवर्त
समयायुत
उन्हें है प्रणति मेरी
महाक्रोधाविष्ट
लोक जब लगते जलाने
तब तुम
निज दयार्द्रादृष्टि से
करती शिशिर उपचार उसका
दयासंभरिता
जननि हे!

तटित्वंतं शक्त्या तिमिर-परिपंथि-स्फुरणया
स्फुरन्नाना रत्नाभरण-परिणद्धेंद्र-धनुषम् ।
तव श्यामं मेघं कमपि मणिपूरैक-शरणं
निषेवे वर्षंतं-हरमिहिर-तप्तं त्रिभुवनम् ॥३९॥
तिमिरहर पथदर्शिनी
कल शक्तियुत विद्युत प्रभामय
विविध रत्नाभरण भूषित
प्रकट जैसे इन्द्रधनु हो
शंभु दिनमणि तप्त
त्रिभुवन को
बरस पीयूषधारा सींचता है जो
तुम्हारा श्यामघन मणिपूर शरणी
मैं उसी अमृताम्बुवर्षी
सजल श्यामल वारिधर का
कर रहा सेवन सुधाप्लुत
मोदमय अभिराम जननी!

तवाधारे मूले सह समयया लास्यपरया
नवात्मान मन्ये नवरस-महातांडव-नटम् ।
उभाभ्या मेताभ्या-मुदय-विधि मुद्दिश्य दयया
सनाथाभ्यां जज्ञे जनक जननीमत् जगदिदम् ॥४०॥
मूलाधार संस्थित
लास्य लीनालीन
समयासम
संग संयुत
नवात्मन नवरस वलित
ताण्डव निरत शिव
इस युगल युति की दया से
जनक जननी भाव भावित
जगत होता है समुद्भव प्राप्त
देवि दयालुनि हे!

क्रमशः—