सौन्दर्य-लहरी’ संस्कृत के स्तोत्र-साहित्य का गौरव-ग्रंथ व अनुपम काव्योपलब्धि है। आचार्य शंकर की चमत्कृत करने वाली मेधा का दूसरा आयाम है यह काव्य। निर्गुण, निराकार अद्वैत ब्रह्म की आराधना करने वाले आचार्य ने शिव और शक्ति की सगुण रागात्मक लीला का विभोर गान किया है ’सौन्दर्य-लहरी’ में। प्रस्तुत है इस रचना का हिन्दी भावानुवाद।
’सौन्दर्य-लहरी’ संस्कृत के स्तोत्र-साहित्य का गौरव-ग्रंथ व अनुपम काव्योपलब्धि है। आचार्य शंकर की चमत्कृत करने वाली मेधा का दूसरा आयाम है यह काव्य। निर्गुण, निराकार अद्वैत ब्रह्म की आराधना करने वाले आचार्य ने शिव और शक्ति की सगुण रागात्मक लीला का विभोर गान किया है ’सौन्दर्य-लहरी’ में। उत्कंठावश इसे पढ़ना शुरु किया था, सुविधानुसार शब्दों के अर्थ लिखे, मन की प्रतीति के लिये सस्वर पढ़ा, और भाव की तुष्टि के लिये हिन्दी में इसे अपने ढंग से गढ़ा। अब यह आपके सामने प्रस्तुत है। ’तर्तुं उडुपे नापि सागरम्’ - सा प्रयास है यह । अपनी थाती को संजो रहे बालक का लड़कपन भी दिखेगा इसमें। सो इसमें न कविताई ढूँढ़ें, न विद्वता। मुझे उचकाये जाँय, उस तरफ की गली में बहुत कुछ अपना अपरिचित यूँ ही छूट गया है। उमग कर चला हूँ, जिससे परिचित होउँगा, उँगली पकड़ आपके पास ले आऊँगा। जो सहेजूँगा,यहाँ लाकर रख दूँगा। पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठीं, सातवीं, आठवीं, नौवीं, दसवीं के बाद आज ग्यारहवीं कड़ी -
गतै-र्माणिक्यत्वं गगनमणिभिः सांद्रघटितं
किरीटं ते हैमं हिमगिरिसुते कीतयति यः ॥
स नीडेयच्छाया-च्छुरण-शकलं चंद्र-शकलं
धनुः शौनासीरं किमिति न निबध्नाति धिषणाम् ॥४१॥
गगनमणि द्वादश दिवाकर
सान्द्र किरण समूह सुघटित
चमत्कृत माणिक्य-सम
कलधौत निर्मित मुकुट तेरा
ध्यान में किसके नहीं
होता स्फुरित यह इन्द्रधनु-सा
ग्रहण कर माणिक्य की द्युति
भाल संस्थित चन्द्रमा में
जो तुम्हारा स्वर्ण मंडित मुकुट है
गिरिबालिके हे!
धुनोतु ध्वांतं न-स्तुलित-दलितेंदीवर-वनं
घनस्निग्ध-श्लक्ष्णं चिकुर निकुरुंबं तव शिवे ।
यदीयं सौरभ्यं सहज-मुपलब्धुं सुमनसो
वसंत्यस्मिन् मन्ये बलमथन वाटी-विटपिनाम् ॥४२॥
जो प्रफुल्लित
चिकुर तेरा सघन कोमल
रुचिर भरित सुगंध
उसका सुरभि भार समेटने को
ललक आ बसते मनोज्ञ प्रसूनगण नंदन विपिन के
वह तुम्हारा रम्य केश कलाप
कर दे सहज मेरे हृदय संस्थित
घन तिमिर का नाश
छविचिकुरे शिवे हे!
वहंती- सिंदूरं प्रबलकबरी-भार-तिमिर
द्विषां बृंदै-र्वंदीकृतमेव नवीनार्ककिरणम् ॥
तनोतु क्षेमं न-स्तव वदनसौंदर्यलहरी
परीवाहस्रोतः-सरणिरिव सीमंतसरणिः।४३॥
सघन श्यामल केश-दल में
राजती सिन्दूर रेखा
बैरियों को बाँध जैसे
नवल दिनमणि की किरण हो
वह ललाम चटक
तुम्हारे भाल की सिन्दूर रेखा
विलसती जैसे तुम्हारे
वह वदन सौन्दर्य लहरी के अबाध प्रवाह के हित
सरणि-सी कच में खड़ी हो
स्रोतस्विनी सुषमामयी हे!
वह ललित सीमंत सरणी
नित्य क्षेम सँवार दे मेरा।
अरालै स्वाभाव्या-दलिकलभ-सश्रीभिरलकैः
परीतं ते वक्त्रं परिहसति पंकेरुहरुचिम् ।
दरस्मेरे यस्मिन् दशनरुचि किंजल्क-रुचिरे
सुगंधौ माद्यंति स्मरदहन चक्षु-र्मधुलिहः ॥४४॥
युवा-अलि-दल-सा सहज सुन्दर
कुंचित केश संवृत तुम्हारा मुख कमल है,
इस मुख कमल की सुषमा
तिरस्कृत कर रही सरसिज सुमन को
और इसके वरदंत स्मिति की
कान्तिमय मधु सुरभि रस से
मत्त परिमल गंध
स्मरदहन शिव के विलोचन
घूमते मंदस्मिते हे!
ललाटं लावण्य द्युति विमल-माभाति तव यत्
द्वितीयं तन्मन्ये मकुटघटितं चंद्रशकलम् ।
विपर्यास-न्यासा दुभयमपि संभूय च मिथः
सुधालेपस्यूतिः परिणमति राका-हिमकरः ॥४५॥
विमल द्युति लावण्यमय
जो भाल उद्भासित तुम्हारा
मुकुटमंडित
अपर हिमकर खंड
सदृश विराजता है
इन युगल विपरीत भागों का
अमोलक घटित संगम
सुधालेप प्रवाह पूरित
पूर्णिमा का चन्द्र बन जाता
ललामललाटिके हे!
क्रमशः---
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