नल दमयंती की यह कहानी अद्भुत है। भारत वर्ष के अनोखे अतीत की पिटारी खोलने पर अमूल्य रत्नों की विशाल राशि विस्मित करती है। इस पिटारी में यह कथा-संयोग ऐसा ही राग का एक अनमोल चमकता मोती है। भाव-विभाव और संचारी भाव ऐसे नाच उठे हैं कि अद्भुत रस की निष्पत्ति हो गयी है। निषध राजकुमार नल और विदर्भ राजकुमारी दमयंती के मिलन-परिणय की अद्भुत कथा है यह। रुदन, हास, मिलन, विछोह के मनके इस तरह संयुक्त हो उठे हैं इस कहानी में कि नल दमयंती मिलन की एक मनोहारी माला बन गयी है- अनोखी सुगंध से भरपूर। दमयंती स्वयंवर की यह कथा नाट्य-रूप में संक्षिप्ततः प्रस्तुत है। दृश्य-परिवर्तन के क्रम में कुछ घटनायें तीव्रता से घटित होती दिखेंगी। इसका कारण नाट्य के अत्यधिक विस्तृत  हो जाने का भय है, और शायद मेरी लेखनी की सीमा भी। प्रस्तुत है पहलीदूसरीतीसरी के बाद चौथी कड़ी।

दमयंती स्वयंवर : पंचम दृश्य

(दमयंती स्वयंवर का महोत्सव। नृत्य गीतादि चल रहे हैं। राजा महाराजा पधार रहे हैं। सब अपने अपने निवास स्थान पर यथास्थान विराजित होते हैं। सुन्दरी दमयंती अपनी अंगकांति से राजाओं के मन और नेत्रों को अपनी ओर आकर्षित करती हुई रंगमंडप में प्रवेश करती है। संग में सखी मंडल है। हाथ में वरमाला है। राजाओं का परिचय दिया जा रहा है।)

दमयंती: (सखियों के मुख की ओर निहारती है, फिर रंगभूमि की ओर देखती है, फिर चकित हो कर स्वगत भाषण करती हुई एक-एक को देखकर आगे बढ़ने लगती है। आगे एक ही स्थान पर नल के समान आकार और वेषभूषा के पाँच राजाओं को इकट्ठे ही बैठे हुए देखती है। संदेह और विस्मय के साथ स्वयमेव स्वयं से बातें कर रही है।)

अरे! मेरे प्राणेश्वर नल कौन है,यह कैसे जानूँ? कौन देवता हैं, कौन मेरे हृदयेश्वर हैं, यह कैसे पहचानूँ? (ठिठक जाती है, फिर अपनी अंगुलियों को अपने वक्षस्थल पर स्थापित कर दीर्घश्वांस भरती हुई कहने लगती है) बन्द करो मेरे दुर्भाग्य, यह नंगा नाच! अरे जगन्नियंता! मेरे किस अपराध की सजा मिलने वाली है। अरे मेरे व्याकुल नयन! तुम कौन-सा दृश्य देख रहे हो? जीवनधन कहाँ हो? हे विरहाग्नि में संतप्त होते हुए हृदय, यदि तुम लौहमय हो तो द्रवित क्यों नहीं होते। अरे जीवन! क्यों विलम्ब करते हो? तुम्हारा निवासभूत यह हृदय जल रहा है। क्यों नहीं निकल जाते?

अरे मंद-मंद बहते हुए मारुत! यदि विरहाग्नि में मैं जल कर मरूँ तो दीन वचन कह कर प्रार्थना करती हूँ कि मेरे मृत शरीर की भस्म को उत्तर दिशा में स्थित निषध देश में उड़ते हुए पहूँचा देना। ओ राजहंस! नल का संदेश देने वाले प्यारे विहंगम! किस तड़ाग में छिप गए हो? तुम मिल जाते तो मेरी इस यातना को मेरे हृदयेश्वर से परिचित करा देते। प्यारे नल! हे हृदयेश्वर! आपको वरण किए बिना ही यदि मेरे हतभाग्य प्राण निकल जाँय तो जन्म जन्मांतर में भी मैं हृदय से अनुरक्त हो कर आप को ही पुनः प्राप्त करूँ, यही मेरी याचना है। अनसुनी मत करना देव! छोड़ना मत प्राणनाथ! 

(फिर देवताओं से ही हाथ जोड़कर प्रणामपूर्वक स्तुति करती हुई-) हे देवताओं! हंसों के मुख से नल का वर्णन सुनकर मैंने उन्हें पति रूप से वरण कर लिया है। मैं मन से और वाणी से नल के अतिरिक्त किसी को भी नहीं चाहती। देवताओं! आपने ही, आपकी भाग्यविधाता सृष्टि ने ही, निषधेश्वर नल को ही मेरा पति बना दिया है, तथा मैंने नल की आराधना के लिए ही यह व्रत प्रारंभ किया है। मेरी इस सत्य शपथ के बल पर देवता लोग मुझे उन्हें ही दिखला दें। मैं  विनीता करबद्ध प्रार्थना करती हूँ। ऐश्वर्यशाली लोकपालों! आप लोग अपना रूप प्रकट कर दें, जिससे मैं पुण्यश्लोक नराधिराज राजा नल को पहचान लूँ।

(दमयंती का अंतर्विलाप सुन कर देवता द्रवित हो जाते हैं। वे उसके दृढ़ निश्चय, सच्चे प्रेम, आत्मशुद्धि, बुद्दि, भक्ति और नल परायणता को देख कर उसे देवता और मनुष्य में भेद करने की शक्ति प्रदान कर देते हैं। उसको हृदय में ’विजयी भव’ का शब्द सुनायी पड़ता है।)

दमयंती: (पुनः चमत्कृत होती हुई) अहा! अहा! अब तो पार्थक्या मुझे साफ दिखायी देने लगा है। देवताओं के शरीर पर पसीना नहीं है। पलकें गिरती नहीं हैं। उनकी ग्रीवा में पड़ी पुष्पमाला कुम्हलायी नहीं है। शरीर पर मैल नहीं है। वे सिंहासन पर स्थित हैं पर उनके पैर धरती को नहीं छूते और उनकी परछाईं नहीं पड़ती। इधर नल के शरीर की छाया पड़ रही है। माला कुम्हला गयी है। शरीर पर कुछ धूल और पसीना भी है। पलकें बराबर गिर रही हैं। अब मैं पहचान गयी।

(फिर सकुचा कर घूँघट काढ़ लेती हैं, और नल के गले में वरमाला डाल देती हैं। देवता और महर्षि साधु-साधु कहने लगते हैं। पुष्पवृष्टि होने लगती है। राजागण आश्चर्यचकित हो जाते हैं।) 

नल:(आनंद से फूले न समाते हुए) कल्याणी! तुमने देवताओं के सामने रहते हुए भी उन्हें वरण न करके मुझे ही वरण कर लिया है, इसलिए तुम मुझको प्रेम परायण पति समझना। मैं तुम्हारी बात मानूँगा। जब तक मेरे शरीर में प्राण रहेंगे तब तक मैं तुमसे प्रेम करूँगा, यह मैं तुमसे शपथ पूर्वक कहता हूँ। तुम्हारे योग्य आसन मेरा वक्षस्थल ही है। निष्कपट दूतता करने से इन्द्रादि देव मुझ पर दया करें। (देवता बहुत प्रसन्न होकर प्रकट हो जाते हैं तथा नल को वरदान देते हुए फूल बरसान लगते हैं।)

इन्द्र: नल! तुम्हें यज्ञ में मेरा स्मरण करते ही दर्शन होगा और उत्तम गति मिलेगी।

अग्नि: राजा नल! जहाँ तुम मेरा स्मरण करोगे, वहीं मैं प्रकट हो जाऊँगा। मेरे ही समान प्रकाशमय लोक तुम्हें प्राप्त होंगे।

यम: नल! तुम्हारी बनायी हुई रसोई बहुत मीठी होगी और स्मरण रखो, तुम अपने धर्म में सदा दृढ़ रहोगे।

वरुण: हे महाराज! जहाँ तुम चाहोगे,वहीं जल प्रकट हो जाएगा। तुम्हारी माला निरंतर उत्तम गंध से परिपूर्ण रहेगी।

(सभी समवेत आशीर्वाद देते हैं।) 

(राजा नल महाराज भी की राजधानी कुण्डिनपुर में राजसम्मान से सुशोभित होते हैं। महामहोत्सव मनाया जाता है। तदनन्तर राजा भीम की अनुमति प्राप्त करके महाराज नल दमयंती के साथ अपनी राजधानी लौट आते हैं।)

(पर्दा गिरता है।)