करुणामयी जगत जननी के चरणों में प्रणत निवेदन हैं शैलबाला शतक के यह छन्द! शैलबाला शतक के प्रारंभिक चौबीस छंद कवित्त शैली में हैं। इन चौबीस कवित्तों में प्रारम्भिक आठ कवित्त (शैलबाला शतक: एक एवं शैलबाला शतक: दो) काली के रौद्र रूप का साक्षात दृश्य उपस्थित करते हैं। प्रारंभिक छः प्रविष्टियों (शैलबाला शतक: एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः) में इन चौबीस कवित्त छन्दों को प्रस्तुत किया जा चुका है। इसके बाद की प्रविष्टियाँ सवैया छंद में रची गयी हैं, जो क्रमशः प्रस्तुत हैं। शैलबाला शतक – सात, आठ, नौ, दस एवं ग्यारह के बाद प्रस्तुत है अगली कड़ी-

का रहलीं भइलीं हम का जगदम्ब अराधै में आवैले जूड़ी
सौ सौ सासत झेलत नींच पै पापै क बइठल पोवत पूड़ी
पंकिल की बेरियॉं देवता हरलैं सब बइठल पेन्ह के चूड़ी
माई तोरै बल चाहे दुलारा या अँइठि के चूल्ही में जोरि दा मूड़ी॥८५॥
आरत बैन पुकारत दीन बेचैन फिरै पग पिंडलि सूजी
पेट के हेत चपेट सहै नाहिं चेट में एको छदाम की पूँजी
मारत मूस कलइया मड़इया में भौन में पुण्य की भाँगों न भूँजी
पंकिल पै ढरि ना घटबू यश जयजयकार दिगन्तर गूँजी॥८६॥
काम मथै मन आठो घरी धुन पापन की घुन लागे अनाजे
भोग की नींद में मातल नींच कबौं सुमिरै न अकाजे बिकाजे
पंकिल बूझि रहै परिनाम तबौं अघलीन मरै नहिं लाजे
लेहु उबारि तूँ बाँह पसारि गोहार करै बम्हना दरवाजे॥८७॥
शैलबाला शतकजीवन बीतत जात बृथा अजहूँ चित चंचल चेतत नाहीं
हाय बिहाइ दई सुर रूख गही तितली भॅंड़भॉंड की छॉंहीं
अंजलि जोरि निहोरि कहीं पकरीं अॅंगुरी पथ भूलल राही
राखहु अम्ब करीब गरीब के पंकिल की जिनगी के निबाही॥८८॥
लोचन मइल तूँ कै मोंहि चाहैलू कौन से घाट कै पानी पियावल
पंकिल कइसे ओही कर से बिष घोरि पियइबू जे दूध पियावल
कइसे मतारी रही चुप देखि के आँखि के आगे तनय ढठियावल
कौड़ी के मोल बिकात तनय तोर काँहें न चाहैलू तूँ अपनावल॥८९॥
धै बहियाँ भटके सुत कै कब ले चलबू रहिया सगुनौती
की तूँ न ऊ बुढि़या मोर माई जे माथो दुखइले पै मानै मनौती
काम कसाई बली महिसासुर माई पछारैला देइ चुनौती
पंकिल के गोदिया में उठाइ ला देबि दयामयि माई भगवती॥९०॥
चाहत नींच चखै फल आम कै बाउर बोइ बबूर की गाँछी
कोऊ रहै न चहै हमरे अँजरे पँजरे भनकै अघमाँछी
सार सम्हार करइया तोंही हमरी कछनी रुचि के रचि काछी
जोग छमा के गिनालैं सदा जननी सुत पंकिल बाम्हन बाछी॥९१॥
आपन पोसल लाख खली न केहू कुकुरो घर से दुरियावै
आँखिन ओट न होखन देत तनय सहि चोट मतारी बचावै
माता से तो बड़ नाता न देखल चाहे केहू कुछहू बतियावै
माई के नाँव क लाज रखा तुहिं पंकिल पूत गोहार लगावै॥९२॥
का मुँह लै बिनईं मँहतारी दुआरी तोहारी कलंकित कीनी
हौं तोहरी पचरंग दई चुनरी दगिहा लुगरी कइ दीनी
सत्तर मूँस चबाइ के पंकिल चाहै बिलारी भई भगतीनी
माई सबै सुख सम्पति छीनी पै आपन अम्ब दुलार न छीनी॥९३॥
ना सपनो में तूँ लउकैलू माई लखाय न खंजन कोने भँडारा
ना दहिनी फरकै अँखिया नाहिं कागा मुरेरे पै बाँटै ला चारा
आवा हमैं अपनावा दयामयि तूँ हमसे न करा छुटकारा
पंकिल के चाहे मारा दुलारा पै दीन बेचारा कै तोंहीं सहारा॥९४॥
की बड़की मोर माई न तॅूं कि न हौं बेटवा बड़का धमधूसर
की बिधिना लिखलैं भगिया हमरी तजि लेखनि थाम के मूसर
मो सम पूत अनेक तोरे पर तों सम माई हमार न दूसर
सींचि हरा करि दा जननी निज नेह के नीर से पंकिल ऊसर॥९५॥
सम्भु प्रिया मन मानै न मोर थिरात न जइसे लगी कुकुरौंछी
अम्ब पसीज के फेरि ला तॅू अपनी ओरियॉं हमरी मति ओछी
माई कोंहाइ के जालू कहॉं बिलखात बेटउवा क ऑंस के पोंछी
पंकिल लोटि चिरौरी करै दुखिया रखि पावैं गरे की अँगोछी॥९६॥