शैलबाला शतक स्तुति नयनों के नीर से लिखी हुई पाती है। इसकी भाव भूमिका अनमिल है, अनगढ़ है, अप्रत्याशित है। करुणामयी जगत जननी के चरणों में प्रणत निवेदन हैं शैलबाला शतक के यह छन्द! शैलबाला-शतक के प्रारंभिक चौबीस छंद कवित्त शैली में हैं। इन चौबीस कवित्तों में प्रारम्भिक आठ कवित्त (शैलबाला शतक: एक एवं शैलबाला शतक: दो) काली के रौद्र रूप का साक्षात दृश्य उपस्थित करते हैं। पिछली छः प्रविष्टियों (शैलबाला शतक: एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः) में इन चौबीस कवित्त छन्दों को प्रस्तुत किया जा चुका है। इसके बाद की प्रविष्टियाँ सवैया छंद में रची गयी हैं, जो क्रमशः प्रस्तुत हैं। शैलबाला शतक – सात, आठ, नौ एवं दस के बाद प्रस्तुत है अगली कड़ी-

Shailbala Shatakचाही न बाउर के कछु आउर नेह क तूँ जेवनार बनावा
बोलि के खेलत पंकिल लाल के ले गोदिया दुलराइ जेंवावा
मद्धिम होन न पावे कबौं सुधि दीपक कै बतिया उकसावा
आग लगे का कुँआ खोदबू मुँह फेरा न माँ अँखिया से गिरावा॥७३॥अवगुन जाल फँसी जिनगी न बवाल ओराय कबों ओरियावल
जन्म हजारन के अघ की गठरी पर बा गठरी जोरियावल
जाई सही जमदूतन से अघ पंकिल प्रान बड़ा लतियावल
काहें के दूलम कइलू तोहूँ जननी अपनों बोलबो बतियावल॥७४॥

लालन कै मॅुंहवाँ मुरझै मत राखैलु आँचर ओट छिपाई
सातो समुन्दर सूखी पै माई तोरे उर कै दुधवा न ओराई
देखि तनय मुख स्वेद बिहाल तू पंकिल शोनित देलू बहाई
का करुना चुकलीं सिगरी घर फूँक तमाशा निहारैलू माई॥७५॥

बइठल तूँ चुप कइसे निहारैलू काम कसाई हमै धरि पीसत
रंचक जौ अँकुरै अनुराग त सोर उखारि के लातन मीसत
तोहूँ से काम कि भइलैं बली इहै पंकिल सोच करेजे में टीसत
दूधौ नहाय औ पूतों फरै जग जाको मोरी जगदम्ब असीसत॥७६॥

अन्तर मोर अन्हार गली न खिली रउरी अनुराग की राका
भाव सुगन्ध विदा उर से भवभामिनि नैन उघारि के ताका
मोर हृदय गढ़ तोर मच्यो तॅह पंकिल काम को धूम धड़ाका
पूत पुकारत हे दुख हारिनि जागा तोहार झुकै न पताका॥७७॥

कूदै सदा चढ़ि क्रोध कपारे मनोज करै बरजोर चढ़ाई
मत्सर की मुँगरी मुँह फोरत घोर करै अभिमान खिंचाई
आठो घरी घोरियवले घृना बिषयान की रात दिना पहुनाई
माई कोंहइलू कि गइलू ओंहाय कि पंकिल की न सुहाय रोआई॥७८॥

ज्यौं निरमोही तोंहिं बनबू फिर जाइ बसी कँहवाँ ममता रह
ना सुनली कि बेहाल तनय के बिहाइ मतारी हो नौ दू इग्यारह
कइसन माई हऊ नाहिं सालत कोढ़ में खाज गयो करजा रह
नैन उघारि निहारा बजै सुत पंकिल के चेहरा पर बारह॥७९॥

उफ्फर का तोहउँ डलबू अब जेके कहीं पुछवइया न कोई
सोचैलू पूत बड़ा तोहरे बिन बोले कि काग बिहान न होई
लेकिन माई हौ माइयै बइठल जोहै ले पैंड़ा बनाय रसोंई
बउरहवा बिलखै सुत पंकिल कइसे करेज न तोर करोई॥८०॥

तूँ सुत के नहवाइ सजाइ के भेंजैं लू खेलै दिठौना लगा के
आपस में अझुराइ कोंहाइ के लौटै घरे मुँहवाँ लटका के
पंकिल पागल होखैलू दइया रे का के खियवलस कइलस का के
हाय ऊ गइलैं दुलार कहाँ धँसि डूबि मरीं जननी कँह जा के॥८१॥

ऊपर से भल लागै भले भींतरा करतूत महान घिनौनी
काम के नाम पे नानी मरै पर नीच के चाही करेर नचौनी
सोझे मुँहें केहु बातो न पूछत बा सबकी टेढिअइलै बरौनी
पंकिल चउपट खम्भ के त्यागि के तोंहू बना मतवा मत मौनी॥८२॥

जौ सुत भार अँगेजै में काँपैलू काँहे मतारी क नाँव धरउलू
की हमके कढ़लू खोंढ़रा से न थारी बजउलू न सोहर गउलू
जौं जनलू कुल बोरन होइहैं त कॉंहें न माहुर घोर पियउलू
पंकिल की बेरियाँ मँहतारी तूँ ऊसर भइलू कि दूसर भइलू॥८३॥

अवगुन एको न बाचल बा अघिया करतूत में जव जव आगुर
लायक ना तोहरे जग जोग न दूनौं ठईं करनी से लजाधुर
त्रास धनी जन कै जम कै न घरे क न घाटे क धोबी क कूकुर
पंकिल कै दुखवा बूझिहा मुँहवाँ तोर ताकत टूकुर टूकुर॥८४॥

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