यथार्थ और अनुभूति के विरल सम्मिश्रण से निर्मित कविता के कवि डॉ० सीताकांत महापात्र का जन्मदिवस है आज। हिन्दी जगत में भली भाँति परिचित अन्य भाषाओं के कवियों में उड़िया के इस महत्वपूर्ण हस्ताक्षर का स्थान अप्रतिम है। डॉ० नामवर सिंह इन्हें ’समय और शब्द का कवि’ कहते हैं। इनके अनुसार समय को शब्द में और शब्द को समय में बदलना ही कवि की काव्य-साधना है जिसकी अन्तिम परिणिति संभवतः एक नयी शब्दहीनता है। डॉ० नामवर सिंह कवि की पुस्तक ’तीस कविता वर्ष’ की भूमिका लिखते हुए डॉ० सीताकान्त की शब्द-चिन्ता का रहस्य ढूँढ़ते मिलते हैं-

जिसका विकल्प नहीं, वही कविता का संकल्प है। कवि की तलाश वही शब्द है- आदि शब्द, अनुभव मूल में निहित शब्द। क्या इसलिये कि प्रत्येक अनुभव शब्द्से अनुविद्ध है? क्या सीताकान्त की शब्द चिन्ता का रहस्य यही है? कौन जाने? कवि के सिवा और कौन जानता है कि अन्ततः टिकते हैं शब्द ही। शब्द को अक्षर कहा गया है। समय का क्या? आया और गया। किसकी मजाल है जो उसे पकड़ रखे। क्या इसीलिये कवि अपने समय को शब्द में बदलता रहता है।

डॉ० नामवर सिंह : तीस कविता वर्ष पुस्तक की भूमिका

डॉ० सीताकान्त महापात्र का काव्य संसार

डॉ० सीताकान्त महापात्र का काव्य-संसार हिन्दी के पाठक के लिये पूर्णतया परिचित है । वह हिन्दी में भी उतने ही समादृत हैं जितने उड़िया में । विश्व की अनेकों भाषाओं में उनकी रचनाओं के अनुवाद कविता की संप्रेषणीयता एवं आज के संक्रमण काल में कविता की गंभीर प्रकृति व उसकी अर्थवत्ता के स्वीकार के प्रति आश्वस्त करते हैं । कविता को अनवरत साधना और तपस्या का पर्याय मानने वाले इस कवि की एक कविता में – जिसका शीर्षक है ’समय का शेष नाम’  – कवि कविता को जन्म-जन्मांतर की वर्णनातीत साधना सिद्ध करता है –

“कभी-कभी लगता है
अब हमारे चारों ओर रुद्ध हो रहे
बेशुमार शब्द, शब्द ही शब्द
खचाखच, रेल-पेल, हाव-भाव,
घटाटोप शब्दों पर
शब्द रूप, शब्द रस
शब्द गंध, शब्द स्पर्श
न तुम मुझे देख पाती, न मैं तुम्हें
मेरे हाथ से बिछुड़कर खो जाती
शब्दों की भीड़ में तुम
डूब जाती शब्दों के समुद्र में
उन्हीं शब्दों के ढेर को उलीच कर
मैं खो जाता तुम्हें
कान या नाक में पानी भरने पर
याद करता तुम्हें
इतना कहने कि
सारे शब्द मरने के बाद जो रहता है, वही है प्रेम
और सारे शब्द चुक जाने के बाद जो बचता है, वह है कविता।”

सीताकान्त महापात्र

परिचय

जन्म: 17 सितम्बर, 1937- महँगा, जिला-कटक (उड़ीसा); मातृभाषा: उड़िया; शिक्षा: एम०ए० (इलाहाबाद), डी०ओ०डी०एस० (कैम्ब्रिज), पी-एच०डी० (उत्कल वि०वि०); पुरस्कार-सम्मान: फेलो इण्टरनेशनल अकादमी ऑफ पोएट्स, भाभा फेलोशिप, साहित्य अकादेमी पुरस्कार (1974), सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार (1983), भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान (1993) आदि; प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ: दीप्ति ओ द्युति, अष्टपदी, शब्दार आकाश (साहित्य अकादेमी), समुद्र, चित्र नदी, आरा दृश्य, सूर्य तृष्णार, इत्यादि व हिन्दी में अनेकों कविता पुस्तकें अनुदित यथा लौट आने का समय, समय का शेष नाम, तीस कविता वर्ष, अपनी स्मृति की धरती आदि। अनेकों अन्य भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद।

सीताकान्त महापात्र आधुनिक कवि हैं – शिल्प में भी, कथ्य में भी, परन्तु परम्परा से संयुक्त। परम्परा का स्वीकार, उसकी प्रकृति-विकृति का सम्यक परीक्षण एवं उससे प्राप्त सम्पदा का वर्तमान की जटिलता के सांगोपांग विवेचन में उपयोग, डॉ० सीताकान्त की कविता की मूल विशेषतायें हैं। आधुनिकता परम्परा से सार्थक रूप से समन्वित होकर एक नयी अभिव्यंजना की पृष्ठभूमि रचती है। यह समन्वय केवल भावात्मक व बौद्धिक स्तर पर नहीं है इस कवि में, बल्कि उनकी पूरी सर्जना और उनके व्यक्तित्व में भी सहज ही परिलक्षित है। परम्परा और आधुनिकता के सम्बंध को व्याख्यायित करते हुए डॉ० सीताकान्त कहते हैं-

“परम्परा रक्त में घुली रहती है, आँख-कान उसी क़ायदे से देखते हैं, दिमाग नए क़ायदे से देखना सीखता है, समझता है। बहुत कुछ नहीं भी समझता। वही टेंशन, तनाव, द्वंद्व, विरोधाभास की नई परंपरा बनता है और मैं उसे कविता में खींच लेता हूँ। वैसे परंपरा कोई निर्दिष्ट बिन्दु नहीं है। वह इतिहास का कारागार भी नहीं है। यथार्थ को देखने का क़ायदा परम्परा से मिलता है, वास्तविक आधुनिकता तो परम्परा का नवीनतम रूप है, उसका नव-कलेवर है, आत्मिक उद्वर्तन है।” (भारतीय साहित्यकारों से साक्षात्कार : डॉ० रणवीर रांग्रा )

समकालीन भारत के दक्षतम कवियों में शुमार इस कवि ने कविता को नई काव्य-चेतना और नई संभावनायें दीं हैं। उन्होंने परम्परा और आधुनिकता का सार्थक समन्वय किया है। वे दुख और वेदना में भी मानव के गहनतम आनन्द की खोज अपनी कविता में करने वाले, पारंपरिक प्रतीकों का प्रयोग करने वाले, विराट फलक पर जीवन के इंद्रधनुषी आयाम प्रकट करने वाले कालजयी कवि हैं। आज इस कवि का पुण्य स्मरण मेरे मुझमें असीम श्रद्धा का सन्निवेश कर रहा है। विनत!


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