यथार्थ और अनुभूति के विरल सम्मिश्रण से निर्मित कविता के कवि डॉ० सीताकांत महापात्र का जन्मदिवस है आज । हिन्दी जगत में भली भाँति परिचित अन्य...

" जिसका विकल्प नहीं, वही कविता का संकल्प है । कवि की तलाश वही शब्द है - आदि शब्द, अनुभव मूल में निहित शब्द । क्या इसलिये कि प्रत्येक अनुभव शब्द्से अनुविद्ध है ? क्या सीताकान्त की शब्द चिन्ता का रहस्य यही है ? कौन जाने ? कवि के सिवा और कौन जानता है कि अन्ततः टिकते हैं शब्द ही । शब्द को अक्षर कहा गया है । समय का क्या ? आया और गया । किसकी मजाल है जो उसे पकड़ रखे । क्या इसीलिये कवि अपने समय को शब्द में बदलता रहता है ।"
डॉ० सीताकान्त महापात्र का काव्य-संसार हिन्दी के पाठक के लिये पूर्णतया परिचित है । वह हिन्दी में भी उतने ही समादृत हैं जितने उड़िया में । विश्व की अनेकों भाषाओं में उनकी रचनाओं के अनुवाद कविता की संप्रेषणीयता एवं आज के संक्रमण काल में कविता की गंभीर प्रकृति व उसकी अर्थवत्ता के स्वीकार के प्रति आश्वस्त करते हैं । कविता को अनवरत साधना और तपस्या का पर्याय मानने वाले इस कवि की एक कविता में - जिसका शीर्षक है ’समय का शेष नाम’ - कवि कविता को जन्म-जन्मांतर की वर्णनातीत साधना सिद्ध करता है -
"कभी-कभी लगता है
अब हमारे चारों ओर रुद्ध हो रहे
बेशुमार शब्द, शब्द ही शब्द
खचाखच, रेल-पेल, हाव-भाव,
घटाटोप शब्दों पर
शब्द रूप, शब्द रस
शब्द गंध, शब्द स्पर्श
न तुम मुझे देख पाती, न मैं तुम्हें
मेरे हाथ से बिछुड़कर खो जाती
शब्दों की भीड़ में तुम
डूब जाती शब्दों के समुद्र में
उन्हीं शब्दों के ढेर को उलीच कर
मैं खो जाता तुम्हें
कान या नाक में पानी भरने पर
याद करता तुम्हें
इतना कहने कि
सारे शब्द मरने के बाद जो रहता है, वही है प्रेम
और सारे शब्द चुक जाने के बाद जो बचता है, वह है कविता ।"
सीताकान्त महापात्र आधुनिक कवि हैं - शिल्प में भी, कथ्य में भी, परन्तु परम्परा से संयुक्त । परम्परा का स्वीकार, उसकी प्रकृति-विकृति का सम्यक परीक्षण एवं उससे प्राप्त सम्पदा का वर्तमान की जटिलता के सांगोपांग विवेचन में उपयोग, डॉ० सीताकान्त की कविता की मूल विशेषतायें हैं । आधुनिकता परम्परा से सार्थक रूप से समन्वित होकर एक नयी अभिव्यंजना की पृष्ठभूमि रचती है । यह समन्वय केवल भावात्मक व बौद्धिक स्तर पर नहीं है इस कवि में, बल्कि उनकी पूरी सर्जना और उनके व्यक्तित्व में भी सहज ही परिलक्षित है । परम्परा और आधुनिकता के सम्बंध को व्याख्यायित करते हुए डॉ० सीताकान्त कहते हैं -
" परम्परा रक्त में घुली रहती है, आँख-कान उसी क़ायदे से देखते हैं, दिमाग नए क़ायदे से देखना सीखता है, समझता है । बहुत कुछ नहीं भी समझता । वही टेंशन, तनाव, द्वंद्व, विरोधाभास की नई परंपरा बनता है और मैं उसे कविता में खींच लेता हूँ । वैसे परंपरा कोई निर्दिष्ट बिन्दु नहीं है । वह इतिहास का कारागार भी नहीं है । यथार्थ को देखने का क़ायदा परम्परा से मिलता है, वास्तविक आधुनिकता तो परम्परा का नवीनतम रूप है, उसका नव-कलेवर है, आत्मिक उद्वर्तन है ।" (भारतीय साहित्यकारों से साक्षात्कार : डॉ० रणवीर रांग्रा )
समकालीन भारत के दक्षतम कवियों में शुमार इस कवि ने कविता को नई काव्य-चेतना और नई संभावनायें दीं हैं । उन्होंने परम्परा और आधुनिकता का सार्थक समन्वय किया है । वे दुख और वेदना में भी मानव के गहनतम आनन्द की खोज अपनी कविता में करने वाले, पारंपरिक प्रतीकों का प्रयोग करने वाले, विराट फलक पर जीवन के इंद्रधनुषी आयाम प्रकट करने वाले कालजयी कवि हैं । आज इस कवि का पुण्य स्मरण मेरे मुझमें असीम श्रद्धा का सन्निवेश कर रहा है । विनत !
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