तुम्हें याद है… तुमने मुझे एक घड़ी दी थी- कुहुकने वाली घड़ी। मेरे हाँथों में देकर मुस्कुराकर कहा था, “इससे वक्त का पता चलता है। यह तुम्हें मेरी याद दिलायेगी। हर शाम चार बजे कुहुक उठेगी। आज भी….चार ही न बज रहे हैं अभी…लगता है बाकी हैं कुछ सेकेण्ड।” फिर तुम खिलखिलाकर हँस पड़े..और अचानक ही वह कुहुक उठी।

आज वर्षों के अंतराल पर तुम्हें देखा है। घड़ी कुहुक उठी है। चार तो नहीं बजे…. फिर क्यों? हर शाम चार बजे घड़ी कुहुकती रही, मैं तुम्हारी यादों में निमग्न सुध-बुध खोता रहा…. तुम्हारी वह अंतिम मुस्कान, और फिर तुम्हारी वह खिलखिलाहट! दुर्निवार…! मैंने कई बार महसूस किया ढलती हुई शाम में घंटो सोचते, उग आये चंद्रमा की चाँदनी-सी विस्तरित होती तुम्हारी खिलखिलाहट के बारे में… सोचता रहा, सोचता रहा…. सोच न सका, समझ न सका।

तुमने मुझे एक घड़ी दी थी, घड़ी वैसे ही चल रही है

आज वर्षों के अंतराल पर तुम मिले हो। घड़ी वैसे ही चल रही है….चार बजे कुहुक रही है। वर्षों तक समझ न पाया, पर आज शायद तुम्हारा इशारा समझ रहा हूँ, समझ पा रहा हूँ। क्षण को अक्षुण्ण बनाये रखने की अदम्य अभीप्सा मुझे सौंपकर तुमने समझा दिया कि ऐसे ही किसी क्षण को अनन्त समय तक अ-व्यतीत बनाये रखने की संघर्षमयता में न जाने कितने अमूल्य क्षण बीतते चले जाते हैं। अनवरतता का मोह ही ऐसा है। तुम्हारी उद्भावना न समझी थी उस वक्त।

मैं सोच रहा हूँ, तुमने उस क्षण को जी लिया…. फिर चल पड़े। मैंने उस क्षण को पकड़ लिया…. अटक गया। उस विशेष काल को विराट-काल से घुला-मिला दिया तुमने, मैंने उसे बाँध लेने की कोशिश की। क्या मैं समझता न था कि मनुष्य घड़ियों से कब बँधा है?  घड़ियाँ हमेशा कुहुकती रही हैं, हँसती रहीं हैं उस पर। यद्यपि हम दोनों ने उस क्षण को विराट से लय कर देना चाहा, शाश्वत बना देना चाहा…. तुमने उस क्षण-विशेष को सततता के सौन्दर्य में परखा… मैंने उस क्षण-विशेष की साधना से उसे ही सतत बना देना चाहा।

क्या ऐसा हो सकता है कि बरसों बाद भी मनुष्य, उसका कोई एक अनुभव, उसका बोध- सब गतिहीन होकर ठहरा रह जाय! क्या यह स्थिरता है- प्रेम की स्थिरता! तुमने मुझे एक घड़ी दी थी, वो तो चल रही थी… चार बजना, उसका कुहुकना गति की सूचना थी। क्षण अटका नहीं था चार पर, क्षण का अनुभव था, जो चार की सापेक्षता में स्थायी हो गया था। 

बस यूँ ही….

रंग-गंध-मिलन क्षणिक मादक

मिल गयी है फूल की वह  गंध 
जाकर रंग से... 
ढूँढ़ना मत अमरता। 

सज गया है वह अनोखा राग 
जाकर गीत पर...
खोजना मत सततता। 

रंग-गंध-मिलन क्षणिक मादक
वियोग की करुण कथा है, 
राग तो आकाश में लय हो उठेगा
मनोवांछा की व्यथा है।