करुणावतार बुद्ध- 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9 के बाद प्रस्तुत है दसवीं कड़ी।

करुणावतार बुद्ध

(अगम्य-गम्य गिरि प्रान्तरों, कंदर खोहों तथा घोर विपिन में घूमते फिरते सिद्धार्थ के साथ लगी विद्वत मण्डली ने साथ छोड़ दिया। पंचभद्रीय विप्र उनके साथ लगे रहे। शयन-जागरण, उत्थान-परिभ्रमण सब में सिद्धार्थ एक ही चिन्ता में डूबते उतराते रहते-दुख क्या है, क्यों है, कैसे है और इससे निवृत्ति कैसे हो! कभीं सारी रात जल में खड़े रहते, कभीं नेत्र-प्रतिघातिनी सूर्य-किरणों को अपलक निहारते, कभीं कठोर आसन साधते, कभीं प्राणायाम में घंटो-घण्टों समय व्यतीत करते, कभी उपवास करते, कभी मौन रहते, कभी एक पादस्थिति में तरु शाखा पकड़कर खड़े रहते। कभीं समय निकलने पर संगस्थ विप्रों से मन की बातें करते, कभीं तत्व-चर्चा करते, कभीं फूट-फूट कर बिलख पड़ते, कभी पागलों-सा प्रलाप करते, कभीं कुछ गुनगुनाते, कभीं किसी को कुछ सुनाते-समझाते, कभी आकाश के विस्तार और उसकी गहन नीलिमा का अवलोकन करते, कभीं किसी गहन कूप की गहराई झाँकते, कभी खग-रव में अपना स्वर मिला देते, कभीं वन्यपशुओं को अपने गले लगाते, कभी आँखें मूँदे धूलि में लेट जाते, कभी आँखे अधमुखी छोड़ देते। इस प्रकार तपश्चर्या में कब दिन बीता, कब रात गयी, इसकी खोज खबर ही नहीं रहती। साथी ब्राह्मणों का संघट होने पर उनसे जीवन-चर्या, अध्यात्म-चर्या की दिशा-दशा निर्धारित करते। बीच-बीच में वार्ता-क्रम का विराम होता किन्तु उसमें भी उनका स्वगत भाषण चलता रहता । फिर वचन-प्रतिवचन की श्रृंखला प्रारंभ हो जाती।)

सिद्धार्थ: जीवन में दुःख क्यों है? धधकती हुई अग्निज्वाला को शीतल मणिमंडन समझ कर अंक में उठा लेना जैसे सुख का कारण नहीं हो सकता तथा हलाहल को सुधा समझ पी लेना जैसे अमरत्व का कारण नहीं है, वैसे ही विनाशी वस्तु को सुख समझकर अपनाने से सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती! एक ऐसी कोई सत्ता है जो समस्त परिवर्तनों में सदा एकरस है। उस को देखे बिना आंखें अतृप्त ही रहेंगी, उसके बिना हृदय की सेज सूनी ही रहेगी। उसका आलिंगन प्राप्त किये बिना बाहें फैली ही रहेंगी। उसको प्राप्त करने में ही जीव के जीवन की पूर्णता है। जिस जीवन का वह लक्ष्य है वहां सच्चा जीवन है।

एक ब्राह्मण: गौतम! आकाश में उड़ने के लिये केवल पंख ही आतुर नहीं होते, आकाश स्वयं निमंत्रण देता है कि कोई पंछी आये और मेरे उन्मुक्त व्योम में छलांग लगाये! हृदय के अंतर्देश में परमात्मा और उसके वहिर्देश में प्रपंच है। उभय-मध्य में संस्थित हृदय जब स्थूल प्रपंच का चिन्तन करता है तब क्रमशः जड़भावापन्न हो जाता है, और जब अन्तःस्थित चित्स्वरूप परमात्मा का चिन्तन करता है, तब चिदभावापन्न हो जाता है। हृदय को जड़ता के दलदल से निकाल कर चिदभूमि पर प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न ही तो साधना है। प्यारे! पानी की सार्थकता केवल इस बात में नहीं है कि मेघ बरसें बल्कि आदमी के कंठ में उसकी प्यास भी हो! वह पानी अर्थहीन हो जाता है, अगर उसे प्यासा कंठ न मिले।

सिद्धार्थ: विप्रवर! पानी की एक बूंद आकाश से मिट्टी पर गिर जाये तो वह धूल-धूसरित हो जाती है। वही पानी में गिर जाय तो अपना अस्तित्व मिटाकर उसी में समाहित हो जाती है। प्रवृत्ति के ही अनुसार फल। तप में, साधना में प्रवृत्ति ही दुख की आत्यंतिक निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति को लक्ष्य करके होती है। जब तक लक्ष्य की सिद्धि न हो, तब तक साधना से निवृत्त हो जाना कायरता है। सुख और दुख अंतःकरण में होते हैं। अतः अंतःकरण को ऐसी स्थिति में ले जाना ही तपश्चर्या है द्विज, जिसमें उनका अनुभव ही नहीं हो! ऐसा जागरण ही तप है और यह करना ही होगा।

दूसरा ब्राह्मण: तरुण तापस! मेरी समझ में जीवन से बढ़कर जीवन का कोई मूल्य नहीं है। जीवन के सम्पूर्ण सौन्दर्य को परिपूर्णता के साथ जियो! जीवन के संगीत को सुनो। उठा लो जीवन की बांसुरी को, साध लो अंगुलियां। जीवन जीने की सार्थकता सोचा? क्यों है जीवन यात्रा?

सिद्धार्थ: जीवन यात्रा? विप्रवर! चलता रहता हूँ, पर वहीं रहता हूं। कहाँ रहता हूँ? जहाँ रहना चाहिये। कहाँ रहना चाहिये? स्वयं स्वरूप में। वह कैसा है- शांति स्वरूप और प्रकाश स्वरूप। चल में भी अचल होना चाहिये, यात्रा में भी स्थिर रहना चाहिये। पता नहीं यात्रा कब समाप्त हो जायेगी!

ब्राह्मण: तपश्वर्या तुम्हारे प्रश्नों का समाधान कर देगी, इसका क्या भरोसा? भावानुभाव की हत्या करके कुछ पा जाओगे, यह दुराशा है। अनुराग-उदधि में डूबो, विचार का बोझ विसर्जित कर दो। क्यों खोजने पाने का चक्रव्यूह रच रहे हो? क्या पाया तुमने अब तक? क्या मिटा सके तुम? तुम तो अपने आप को मिटा रहे हो। अनुपलब्धि के इस दुखान्तक खेल में हम तुम्हारे साथ नहीं रहेंगे। जगत दुख है, दुख है, मिथ्या है, मिथ्या है कहने से काम नहीं चलेगा।

(ब्राह्मण साथ छोड़ काशी की ओर प्रस्थान कर जाते हैं ।सिद्धार्थ व्यथित घूम रहे हैं ।) 

सिद्धार्थ: ओ विश्वविपदे! क्या तुम्हारा साम्राज्य अभेद्य है? मुझसे देखा नहीं जाता। कहाँ सुख-स्रोत खोजूँ?

(सिद्धार्थ माथ पीट-पीट कर गगन की ओर दृष्टि फैलाते हैं । आँखें अश्रुस्नात हैं । अधर विकंपित हैं । सहसा तपस्विनी दर्शित होती है ।)
 

तपस्विनी: देखो प्रिय! ज्ञान ही ज्ञान के लिये आतुर हो रहा है। स्वयं स्वयं का अनुसंधान कर रहा है। कैसी लीला है? कितना सुन्दर खेल है। जो खिलाड़ी है, वही खिलौना है और वही खेल है। देख भी वही रहा है। अपने खेल में स्वयं ही रीझ गया है। यही खेल की पूर्णता है। समय प्रतीक्षा कर रहा है तुम्हारे पकने की। जागो! अपने पास रहो! अपने सामने रहो! जो कुछ भी हो रहा है, वह विराट नाटक की एक अनादि नाटकीय योजना के अनुसार ही हो रहा है। चित् शक्ति लीला कर रही है।

संकल्प ही सारे प्रपञ्च का मूल् है। संकल्प ही न किया जाय! जो हो रहा है, होने दो! प्रिय! तुम संकल्पहीनता का अभ्यास करो! स्थिर हो जाओ! अभीं स्थिर हो जाओ! तुम स्थिर ही हो। तुममें गति है ही नहीं। तुम स्वयं पूर्ण हो! पूर्ण रहो! पूर्ण रहोगे! 

सिद्धार्थ: जो दिखायी दे रहा है, वह क्या है? यह दुःस्वप्न ही तो है। मुझे जो दर्शित हो रहा है, उसका परिचय?

तपस्विनी: दृश्य द्रष्टा से भिन्न नहीं है। अविद्या ने ही यह द्वैध उत्पन्न किया है। तुम असली स्वरूप में स्थित होकर दृश्य स्वरूप को समझ जाओगे! तपो, तपो!

सिद्धार्थ: सही है, सही है! तपना होगा! तपना होगा!  अंधेरे को कोसने से प्रकाश की किरणें नहीं फूट जातीं। विषाद करने से वायु का रुख नहीं बदल जाता। इसी क्षण में जीना होगा, और इसी क्षण में इतनी परिपूर्णता से जीना होगा, जैसे कि दूसरा क्षण कभीं होगा ही नहीं। पूरा अस्तित्व इसी क्षण में ही मौजूद है। प्राण मेरे! बैठो अपने पास!

(एक विशाल वट-वृक्ष के नीचे आसन लगाकर बैठ जाते हैं। घोर तपस्या करते हैं, अन्न-फलादि त्याग देते है। शरीर को सुखा रहे हैं।)

जारी…