अपने नाटक ’करुणावतार बुद्ध’ की अगली कड़ी जानबूझ कर प्रस्तुत नहीं कर रहा । कारण, ब्लॉग-जगत का मौलिक गुण जो किसी भी इतनी दीर्घ प्रविष्टि को निरन्तर पढ़ने का अभ्यस्त नहीं । पहले इस नाटक को एक निश्चित स्थान पर ले जाकर अगली एक-दो प्रविष्टियों में समाप्त करने का विचार था, इसीलिये जल्दी-जल्दी पहली तीन प्रविष्टियाँ आ गयीं (फिर अरविन्द जी ने हड़काया) । पर थोड़ी तन्मयता और सुधी पाठक जन की सहज स्वीकार्यता ने इसे कुछ और दूर तक ले जाने का संकल्प भरा है । इनकी अत्यधिक प्रेरणा भी रही है कारक । तो निवेदन यही कि अब यह नाटक प्रत्येक रविवार को प्रस्तुत किया जा सकेगा – आप स्नेह दें, सम्बल दें । साभार ….।
एक लम्बी कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ – दो तीन प्रविष्टियों में पूरी होगी- अपनी नहीं, पानू खोलिया जी की । ज्ञानोदय (नया ज्ञानोदय नहीं) के पुराने अंकों को पढ़ते आँखें ठहर गयीं, फिर मन भी, संवेदना भी, चिंतन भी । पारायण करें (मुझे लम्बी-लम्बी प्रविष्टियाँ इन दिनों प्रस्तुत करने के लिये निन्दित न करें) –

पराजितों का उत्सव : एक आदिम सन्दर्भ 

नहीं जानता –
हमारे अन्दर होती है कोई आत्मा : शुद्ध-बुद्ध
होता है ब्रह्म का स्वरूप कोई : चेतन ?
कोई मोक्ष-पद ?
नहीं जानता ।
जानता हूँ लेकिन –
हर आदमी के …आदमी के अन्दर
के अन्दर, के अन्दर, के अन्दर, के अन्दर
– बावजूद तमाम करुणा, संवेदनशीलता, प्रभावितता,
सच्ची सहानुभूति और विगलितता के
– और बावजूद खुली आँखों, कानों, नाक और जीभ
और स्पर्शिततायुक्त एक त्वचा के –
एक और आदमी पैठा है, बैठा है…जीवन्त ।
समाधिस्थ आदमी वह, मुक्त हंस ।
सारे प्रभावों से मुक्त । शुद्ध-बुद्ध-चित्….निर्विकार –
वह है । अपने में सम्पूर्ण । निरपेक्ष ।
सारे ’हैं-ओं’ से निरपेक्ष । हम से भी ।
इतने तमाम क्रूड-क्रूर सचों के अन्दर धँसा हुआ
एक क्रूड-क्रूरतम सच ।
बाक़ी दुनिया है माया….झूठ ।
और वह अन्दर के अन्दर, के अन्दर,
के अन्दर, के अन्दर का आदमी –
कि जिसकी आँखें नहीं, कान नहीं, नाक नहीं,
जीभ भी नहीं ही — एक त्वचा है जरूर,
मगर गैंडे की ।
(बिनु पग चलै, सुनै बिनु काना ।
— शायद ।
— शायद नहीं ।)
वरना….
यह कभी नहीं होता कि आप का दर्द
मेरा न होता,
और मेरी चोट आप की न होती ।
नहीं ही होती है मेरी चोट
कभी आप की नहीं ही होती है, और –
आप का दर्द मेरा नहीं ही होता है ।
बिलकुल…बिलकुल ।
वरना कभी नहीं होता —
कि आप के गृहदाह के अंगारे
मेरी अँगीठी की आँच बन जाते ।
बन ही जाते हैं–आप के गृहदाह के अंगारे
मेरी अँगीठी की आँच बन ही जाते हैं
— महकदार,
— दहकदार ।

अगली प्रविष्टि में जारी…..

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Last Update: June 19, 2021