Sushil-Tripathi

  Sushil Tripathi

सुशील त्रिपाठी को मैं उनकी लिखावट से जानता हूँ । एक बार बनारस में देखा था -पराड़कर भवन में । वह आदमी एक जैसा है- मेरी उन दिनों की स्मृति एवं इन दिनों की श्रद्धांजलि के चित्रों में। चुपचाप उनके देहावसान की ख़बर पढ़ कर सोचता रह गया। कितना घूमता रहता था वह आदमी- बनारस की गली-दुकानों में, अकादमिक गलियारों में आम सड़क पर आम आदमी की तरह, बाल संसद की वीथिकाओं में और जानी अजानी कंदराओं, गुफाओं, पर्वत श्रृंखलाओं पर। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के अध्ययन का अपना एक ठेठ ठाठ है। वहां से उपजती है समर्पण की जिद। तो सुशील त्रिपाठी (Sushil Tripathi) का होना अपने आप में एक ठेठ समर्पित व्यक्तित्व का होना है।

आज ‘हिंदुस्तान’ दैनिक के स्थानीय संस्करण में एक ख़बर पढ़कर लिखने बैठा । सुशील जी चकिया- चंदौली की जिन कैमूर की पहाड़ियों, गुफाओं का अध्ययन करते हुए फिसले, घायल हुए- वह पहाडियां अचानक विशेषज्ञों के लिए महत्वपूर्ण हो गयीं हैं। सोच रहा हूँ कि न जाने कितनी गुमनाम पहाडियां यूँ ही अपने भीतर अतीत के गोपन रहस्यों को धारण कर किसी समर्पित, खोजी प्रयासरत ‘सुशील त्रिपाठी’ (Sushil Tripathi) की प्रतीक्षा कर रही होंगी कि उनके अंतस्तल पर चिन्हित किन्ही महानुभावों के चरण चिह्न ज्ञापित हो सकें, दुनिया जान सके उनके गुह्य गोपन रहस्य। और तब जब किसी पहाड़ की गुफाएं किसी सुशील त्रिपाठी के द्वारा खोज ली जाएँगी, उन गुफाओं में छुपा हुआ अतीत का सच वर्तमान की थाती बनने को उद्यत होगा और इस अन्वेषण के क्रम में जब फिसल जाएगा किसी सुशील त्रिपाठी का पैर और जब वह भी बन जाएगा अतीत का हिस्सा तब कहीं जाकर पुरातत्वविदों, विशेषज्ञों का दल करेगा ऐसी पहाड़ियों का निरीक्षण। तब खूब विश्लेषित होंगे निष्कर्ष, आयोजित होंगी चर्चाएँ।

मैंने बात नहीं की थी उस समर्पण-काय से। बस सुना भर था उनके बारे में। उनकी आस्था के कुछ चित्र बनाये थे मन ही मन। अब लगता है कि सुशील जी कहते होंगे ख़ुद से कई बार जब बरजती होगी उनकी आत्मा उन्हें अतिशय प्रयास से, अतिरिक्त प्रयास से –
“मैं
प्रयास केवल इसलिए नहीं करता
कि बस सफल ही हो जाऊं
मैं
प्रयास इसलिए भी करता हूँ
कि सफलता से मेरी दूरी
मुझे कुछ कम लगे
निरर्थक, निरुद्देश्य जीवन
जीवन में गति कम न लगे
मैं
प्रयास और प्रयास
इसलिए भी करता हूँ —(सुधीर कुमार श्रीवास्तव )
अब यह प्रयास रंग लाने लगा है । कैमूर कि पहाड़ियों का सच सामने आने लगा है । काशी हिंदू विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों की टीम ने घुरहूपुर-चकिया कि पहाड़ियों की गुफाओं, उनमें मौजूद चिन्हों व गुफाचित्रों का पुरातात्त्विक दृष्टि से निरीक्षण किया है और इनके गुप्तकाल के होने की पुष्टि की है। इस निरीक्षण में इनके दस हजार वर्ष पुराने होने के प्रमाण मिले हैं। कितना अच्छा होता अगर सुशील जी इस वक्त इस पुष्टिकरण, प्रमाणीकरण को सुन,पढ़ रहे होते। सत्य का अन्वेषी सत्य का साक्षात्कार कर रहा होता। पर अनुपस्थिति अस्तित्व को मिटा नहीं सकती।
सुशील त्रिपाठी बोलते मिलेंगे – ठेठ बनारसी अंदाज में —
“वाकया यह दोनों आलम में रहेगा यादगार
जिंदगानी मैंने हासिल की है मर जाने के बाद ।”

Last Update: September 17, 2022