प्रियंगु

प्रियंगु पुष्प की भूमिकाप्रियंगु! यथा नाम तथा गुण। काव्य रसिकों और औषधि विज्ञानियों दोनों का प्रिय। कालिदास इसकी सुगंध के सम्मोहन में हैं। ऋतुसंहार में सुगंधित द्रव्यों के साथ इस पुष्प का वर्णन है। चरक जैसे औषधि विज्ञानी भी इसे खूब चाहते हैं। दाह की चिकित्सा में प्रमुख बताते हुए प्रियंगु और चंदन चर्चित रमणियों के कोमल स्पर्श को दाह की महौषधि सिद्ध करते हैं। प्राचीन काल में राज प्रासादों और बाग-बगीचों के अग्रभाग में प्रियंगु के फूल शोभित होते थे- बृहत संहिता में ऐसा उल्लेख है। अमरकोष, चरक संहिता की टीकाओं, वनौषधिदर्पण और धन्वंतरि निघंटु- सर्वत्र प्रियंगु किसी न किसी संदर्भ में उल्लिखित एवं उद्धृत है।

प्रियंगु सम्बन्धित कवि प्रसिद्धियाँ 

इस पुष्प के संदर्भ में दो कवि प्रसिद्धियों का उल्लेख है- पहली कि यद्यपि इसके पुष्प पीतवर्णी होते हैं परन्तु कवि परम्परा में उन्हें श्यामवर्णी वर्णित करना चाहिये। अजीब है- श्याम रंग का तो यह है ही, फिर नयी बात क्या? श्याम रंग का ही तो लिखेंगे। बृहन्निघंटु रत्नाकर भी यही कहता है कि यह कृष्ण-वर्णी है। यद्यपि ‘डिमक खोरी’ ने इसे पीला कहा है परन्तु दूसरे वनस्पति विज्ञानी ’नाइट’ अपनी पुस्तक ’फिगर्स ऑफ इण्डियन प्लांट्स’ में इसका श्याम वर्णी चित्र ही प्रदान कर देते हैं। फिर संदेह कैसा? शायद संदेह नवग्रह स्तोत्र के बुध-ध्यान मंत्र से हो गया हो- “प्रियंगु कलिका श्यामं रूपेणाप्रतिमं बुधं सौम्यं गुणोपेतं तं बुधं  प्रणामाम्यहम्।”

बुध पीत-वर्णी हैं, परन्तु इस मंत्र में उन्हें श्याम वर्ण का कह दिया गया है- प्रियंगु-कलिका के सदृश रंग वाला। तो काव्यशास्त्रियों ने सोचा होगा कि यदि मंत्रादि में बुध को श्याम कलिका के सदृश श्याम रंग का बताया जा रहा है तो प्रियंगु भी बुध की ही भाँति पीत वर्ण का होगा, उसे श्याम रंग का केवल कवि-कल्पना या अभिव्यंजना की उड़ान से कह दिया गया होगा। फिर प्रचलन में आ गया होगा यह कवि समय कि प्रियंगु होता तो पीत है परन्तु वर्णित श्याम रंग का ही होना चाहिये।

दूसरी कवि प्रसिद्धि यह है कि प्रियंगु सुन्दर स्त्रियों के स्पर्श से विकसित हो उठता है। मधुर स्पर्श प्रियंगु को हर्षातिरेक से भर देता है और प्रियंगु अपना रंग-रूप सर्वस्व अर्पित करने को उद्यत हो उठता है। प्रियंगु के विकसित पुष्पों की मंद सुगंध समा जाती है स्त्री देंह में। राजशेखर ने तो अतिरेकी साम्य दे दिया- इसमें कवित्व भी देखियेगा-

“प्रियंगुश्याममम्भोधिरान्ध्रीणां स्तनमण्डलम्।
अलङ्कर्तुमिव स्वच्छाः सूते मौक्तिकसम्पदः॥”
(दक्षिण समुद्र, आन्ध्र-रमणियों के प्रियंगु-पुष्प के समान श्याम-वर्ण स्तन-मण्डल को मानों, अलंकृत करने के लिये, स्वच्छ मोतियों की सम्पदा उत्पन्न करता है।”)

 

प्रियंगु अपनी अनेक संज्ञाओं, यथा फलप्रिया, शुभगा, नन्दिनी, मांगल्य, प्रिया, श्रेयसा, श्यामा, प्रियवल्लि, कृष्णपुष्पी इत्यादि के साथ प्राचीन संस्कृत काव्य-ग्रंथों व लगभग सभी आयुर्वेद-ग्रंथों में उपस्थित है। संहितायें इस पुष्प का विस्तार से वर्णन करती हैं। वहाँ इसके दो प्रकारों का उल्लेख है- प्रियंगु व गंध प्रियंगु। दूसरी प्रजाति सुगंधित होती है। वस्तुतः यही औषधि-कार्य में प्रयुक्त होती है। गंध-प्रियंगु की धान्य सदृश पुष्पकलिकायें व छोटे छोटे फल होते हैं और बाजार में फूल-प्रियंगु के नाम से बिकते हैं।
 
हिमालय की तराई में काश्मीर से आसाम तक तथा बंगाल, बिहार में इसके गुल्म जंगलों के किनारे, घाट और ऊँची चढ़ाइयों पर, खुले मैदान और परती में पाये जाते हैं। बरसात में पुष्पित होता है यह। जाड़ों में फल आते हैं जो फूल-प्रियंगु के नाम से बिकते हैं। इसे मसल दें तो गंध फैल जाती है। कहीं श्याम रंगी तो कही हल्के गुलाबी रंग के छोटे छोटे फूलों वाला यह वृक्ष रुक्ष गुण, तिक्त रस, कटु विपाक, शीत वीर्य वाला होता है। औषधि कर्म तो अनगिनत हैं जिनमें प्रमुख हैं- त्रिदोषशमन, दाह-प्रशमन, वेदनास्थापन, स्तम्भन, रक्तशोधन आदि।
 
चलते चलते बता दूँ कि वाराहमिहिर ने अपनी ’वृहत्संहिता’ में दकार्गल विज्ञान (हाइड्रोलॉजी ) के अन्तर्गत कुछ ऐसे वृक्षों का भी उल्लेख किया है जिनके द्वारा भूमि के जल-स्तर का पता चलता है, और इसीलिये उन्होंने घरों के समीप अशोक, पुन्नाग, शिरीष एवं नीम के साथ प्रियंगु भी लगाने की अनुशंसा की है।

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