poemसुहृद!
मत देखो-
मेरी शिथिल मंद गति,
खारा पानी आँखों का मेरे,
देखो-
अन्तर प्रवहित
उद्दाम सिन्धु की धार
और हिय-गह्वर का
मधु प्यार।

मीत!
मत उलझो-
यह जो उर का पत्र पीत
इसमें ही विलसित
नव वसंत अभिलषित
और
मत सहमो-
देख हठी जड़ प्रस्तर
इससे ही
उज्ज्वल जीवन जल निःसृत।

अनुरागी!
मत ठिठको-
देख निःस्व नीरद माला
रस रिक्त
इसी का नीर सोखकर तृप्त
धरा गाये
रुचि रंग सुरभि के गीत।

सहपाठी!
आओ पढ़ो-
प्रेम उन्मद, विश्वास प्रखर, आशा असीम
के अक्षर ज्योतित
औ’ रटो सूत्र-
हो पुलिन बद्ध
फिर भी स्वतंत्र है
शाश्वत जीवन धार उल्लसित।