“पहले आती थी हाले दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती ।”

कैसे आए? मात्रा का प्रतिबन्ध है। दिल के हाल का हाल जानिए तो पता चले कितनी मारामारी है? हंसी का गुण ही है की वह वह तत्वतः मात्रा की अपेक्षा करती है। पहले हमें पाकिस्तान की करनी पर हंसी आती थी, अब नहीं आती। अब हमें भारत के धैर्य पर हंसी आती है, कुछ दिनों बाद नहीं आयेगी। सब मात्रा का प्रतिबन्ध है।
हँसाने के लिए तो जरूरी है कि परिस्थिति हल्की हो। परिस्थिति गंभीर होगी तो इसका बोझ हमारा हास्य-शील कैसे सह सकेगा? पर अब तो परिस्थिति गंभीर ही हो गयी है। कैसे हंसें? पर मैंने सोचा हंस सकते हैं अगर अरस्तू की बात माने। वह कहता है न कि वही हास्य-जनक है, जिसकी देश या काल से संगति न हो। तो अभी हमारे पास बहुत से तबीयत के उल्लू बसंत हैं हमारे देश में जिनकी देश, काल, परिस्थिति से कोई संगति नहीं। तबीयत के उल्लू बसंत मने ऐसे खद्दरधारी, कोटधारी, पगडीधारी प्राकृतजन जिन्हें विहाग के वक्त भैरवी और सुहाग के वक्त शिकवा करने की आदत है। पक्का नाम न बताउंगा, ख़ुद समझ लें।
खैर, मैंने कहा न कि अब हंसी नहीं आती। आखिर उस समाज में हंसी कैसे आयेगी जहाँ सभी नग्न हैं? नग्नता केवल शरीर की ही मत समझें, मन की भी। शरीर की नग्नता कार्य है। कारण है- आलस्य। जहाँ नग्नता नियम बन जाय, अपवाद नहीं; विकास बन जाय, अवकाश नहीं, वहाँ क्या होगा? हंसी प्रदान कर सकने वाली नग्नता कपड़े न पहनने के आलस्य से स्वभाव बन जाय तो हंसी कैसे आयेगी? तो ऐसे निरंतर नंगे रहने की चाह रखने वाले प्राकृत जनों कैसे बताओगे देश की जनता को कि तुम अक्ल का बोझ भी नहीं उठा सकते! क्या कह पाओगे कि तुममें एक inertia भर गयी है जिसका मतलब परिस्थितियों से पलायन है।
हमारे देश का भार ढोने वाले गोबर गणेशों! गोबर गणेशता से संतोष कर लेना विश्राम की वासना है, इसे त्यागो। अरे, गणेश तो लम्बोदर थे, वाहन था मूस। इसलिए नारद ने कहा ‘राम’ शब्द की परिक्रमा करो और वे गणपति बन गए। पर क्या तुम भी सच्चे गणेश के भक्त ही हो कि समझ लिया कि बिना प्रयास किए ही पूजा हो सकती है तो चलो, श्रद्धेय गोबर को ही गणेश मान बैठे हो। ‘धैर्य’ नामक शब्द की परिक्रमा से ही अपने कार्यों की इति समझ ले रहे हो, अपने पर ही नहीं फूले समा रहे हो? पर ख़याल रखो, बुलबुले की तरह सतह पर तैरने वाले मत बनो। गंभीर हवा का एक झोंका आया, बुलबुले किनारे हुए।