प्रेमिका ने कहा था-“प्यार करते हो मुझसे?” प्रेमी ने कहा-“प्यार करने की वस्तु नहीं। मैं प्यार ’करता’ नहीं, ’प्यार-पूरा’ बन गया हूं। यहां इसी संवाद का विस्तार है-
Hibiscus Flower
Hibiscus (Photo credit: soul-nectar)

कहने वाला कह जाता है सुनने वाला सुन लेता है
लेकिन कहने और सुनने में कहीं विभेद छिपा होता है
कहने वाला तो सीधे ही मन की बातें कह जाता है
भाषा को अनुकूल बनाना भावप्रवण को कब आता है?
पर सुनने वाला तो केवल शब्दों की ही बात जानता
कहां भाव है, कहां अर्थ है, क्या प्रतीति है? नहीं जानता
वह तो निर्णय ले लेता है बिन विमर्श के लगातार
कहने वाला पा जाता है बिना हार के अपनी हार।

मैने भी जो प्रश्न किया था क्या वह साधारण लगता था?
बिना भाव के प्रेम तत्व का, क्या वह निर्धारण लगता था?
अरे, प्रेम तो पूजा है यह खिलता फ़ूल हृदय के भीतर
मन से मन मिलते ही बहता प्रेम रूप निर्झर सुन्दर
निर्धारण है नहीं प्रेम में, प्रेम बड़ी अनजान डगर है
’मैं को छोड़ प्रेम में आओ’ यही प्रेम का विह्वल स्वर है
कहा आपने प्रेम पूर्ण बन सको तभी कुछ हो सकता है
प्रेम बनाकर कार्य कोई क्या प्रेम हृदय में बो सकता है?
नहीं, प्रेम है कार्य नहीं, है एक अवस्था – यही सही
नहीं पूछ पायी जो मन में, बात गलत वह निकल गयी।

कोई कुछ यदि कहना चाहे और नहीं वह कह पाता है
तो उसके मन के भीतर कहने का दर्द छिपा होता है
मेरी भी है दशा वही, कहना है ना जाने क्या- क्या?
पर सत्य कहूं तो शब्द नहीं हैं ढूंढ़ रही हूं यहां-वहां।

जब कुछ भी कहने लगती हूं, यह लगता है कहीं कमी है
अगले ही पल भय लगता है, कहीं यही तो अधिक नहीं है?