मुझसे मेरे अन्तःकरण का स्वत्व
गिरवी न रखा जा सकेगा
भले ही मेरे स्वप्न,
मेरी आकांक्षायें
सौंप दी जाँय किसी बधिक के हाँथों
कम से कम का-पुरुष तो न कहा जाउंगा
और न ऐसा दीप ही
जिसका अन्तर ही ज्योतिर्मय नहीं,
फिर भले ही
खुशियाँ अनन्त काल के लिये
सुला दी जायेंगी किसी काल कोठरी में,
या कि चेतना का अजस्र संगीत
मूक हो जायेगा निरन्तर,
या मन का मुकुर चूर-चूर हो जायेगा
क्षण-क्षण प्रहारों से
मैं समर्पित साधना की राह लूँगा
नियम-संयम से चलूँगा-
यदि चल सकूँगा ।
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