बीती रात
बतियाते मन उससे एकाकार हुआ ।
रात्रि के सिरहाने खड़ा चाँद
तनिक निर्विकार हुआ ,
बोला –
“काल का पहिया न जाने कितना घूमा
न जाने कितनी राहें मैं स्वयं घूमा
और इस यात्रा में
– जीवन से मृत्यु की अविराम-
सब कुछ हुआ ज्ञात
नहीं शेष कोई धाम
पर आज मिल गया है
अपिरिचित-सा एक स्वर
सिहर रहे हैं कर्ण-कुहर ।”
“देखता हूँ सृष्टि का विस्तार,
चतुर्दिक
मूर्छना के भाव में सिमटी हुई धरती-
तरु-तृण-पात के स्नेह से
नीर-निधि-उछ्वास तक ,
अनगिनत आयाम हैं इस मूर्छना के ।”
“मैंने सुन लिया है स्वर अपरिचित
मृत्यु के भी पार का ।
मैं अकंपित, अ-श्लथ यात्रा अविराम लेकर
सहज ही निर्मित करुँगा मार्ग ।
मुक्त होगा मार्ग वह,
नींव होगी चेतना की ।
जायेगा वह मार्ग
प्राची के ठौर ।”
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