बहुत पहले एक आशु कविता प्रतियोगिता में इस कविता ने दूसरी जगह पाई थी। प्रतियोगी अधिक नहीं थे, प्रतियोगिता भी स्थानीय थी, पर पुरस्कार का संतोष इस कविता के साथ जुड़ा रहा है। कविता ज्यों कि त्यों लिख रहा हूँ- प्रबोध देंगे इस आशा के साथ।
बचपन में
कला के इम्तिहान में
अक्सर कह दिए जाते थे
बनाने को कुछ चित्र
जो देते हों कोई संदेश
जैसे –
‘आओ वृक्ष लगायें’, ‘राष्ट्रीय एकता’
‘जय जवान जय किसान’
या फिर ‘मेरा भारत महान’;
हम बनाने लगते थे
ऊंचे ऊंचे वृक्षों की डालियाँ
जवान की बन्दूक और किसान का हल,
अपने छोटे-छोटे हाँथों से
प्रयास करते थे हम कि बना दें
हिंदू,मुस्लिम,सिख,इसाई एक साथ
हाथों में लिए हाथ
और लहरा दें
मुक्ताकाश में भारत का तिरंगा ;
पर छोटे-से हम, छोटी-सी हमारी सोच
और छोटे-छोटे हमारे हाथ
नहीं दे पाते थे परिणिति इन चित्रों को।
अब हम बड़े हो गए हैं
बदल गयी है हमारी सोच
और बड़े हो गए हैं हाँथ इतने
कि संपादित हो सकता है कुछ भी इन हाथों से
पर
अब इच्छा नहीं होती इन चित्रों को बनाने की
क्योंकि
कागजों में ही रह जाते हैं यह चित्र
कागजों में ही रह जाते हैं यह चित्र
और
इन चित्रों में रह जाता है……………..?
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