जग चाहे किसी महल में अपने वैभव पर इतराए
या फिर कोई स्वयं सिद्ध बन अपनी अपनी गाए
मौन खड़ी सुषमा निर्झर की बिखराये मादक रुन-झुन
तुम्हीं मिलो, रंग दूँ तुमको, मन जाए मेरा फागुन।
यूँ तो ऋतु वसन्त में खग-कुल अनगिन राग सुनाता
आम्र बौर छूकर समीर मादक विभोर धुन गाता
मैं तो प्रिय के मधु अधरों की सुनता क्षण-क्षण गुन-गुन
तुम्हीं मिलो, रंग दूँ तुमको, मन जाए मेरा फागुन।
देखो! सूरज ललक बाँह में भर लेता सरसिज को
विटप, पुष्प, सरि, खग कैसे पाती देते मनसिज को
मैं भी तुमसे मिलकर गाऊँ रहस-भरी रस-रंगी धुन
तुम्हीं मिलो, रंग दूँ तुमको, मन जाए मेरा फागुन।
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