आज के इस समय में भूत नहीं, भूत की कहानियां हैं। भूत से डरना बेवकूफी है । हाँ, भूत की कहानियों से डरा जा सकता है– ऐसा कहते है लोग। शायद इसीलिए भुतही फिल्में डरा देती हैं । यद्यपि विज्ञान इस भूत को स्वीकृति नहीं देता और भुतही फिल्मों से उत्पन्न डर को ‘मेंटल डिसार्डर’ कहने लगता है । एक मजेदार कारण ‘वास्तविक भूत’ एवं ‘ फिल्मी भूत’ के स्वरुप में अन्तर है, जिससे हमें फिल्मी भूत ज्यादा डरा देते हैं।
भूत और वर्तमान
भूत ‘भूतकाल’ का विषय हैं। वर्त्तमान में ‘भूत’ की क्या आवश्यकता? पर वस्तुतः भूत के अनगिनत भूत वर्त्तमान क्या भविष्य को भी आक्रान्त कर देते हैं। मैं कई बार वर्त्तमान से घबराकर भूत में पहुँच जाता हूँ और अनेकानेक भूतों से स्वयं को घिरा पाता हूँ। सच भी यही है कि भूत भगाने का एक नुस्खा वर्त्तमान की संगति भी है।
भूत वर्त्तमान में ढूँढे नहीं मिलता। भूत के बने रहने की कुछ शर्तें हैं। भूत अंधेरे में अपना साम्राज्य बनाता है, चलाता है, अँधेरा कायम रखना चाहता है; लेकिन विभिन्न आकारों के वर्तमान के बिजली बल्बों से अँधेरा बाहर से घबरा कर कहीं भाग गया है । कहीं क्यों? मनुष्य के अंतःकरण में समा गया है- और साथ ही भूत भी।
भूत सन्नाटे में, सुनसान में अपने को सहज पाता है, व्यक्त करता है -वीरानापन उसका सहचर है। परन्तु समय के शोर ने इस सन्नाटे को, इस वीरानेपन को बहिष्कृत कर दिया है। अब यह वीरानापन गाँव, शहर से उठकर मन के आँगन में आकर दुबक गया है।
भूत को रहने की एक मुकम्मिल जगह चाहिए- कोई पुरानी हवेली, कोई टूटा किला, खंडहर, कोई बूढा पीपल-बरगद का पेड़ या ऐसी ही कोई जगह। पर वर्त्तमान ने यह सारी जगहें भूत से छीन ली हैं। इस वर्तमान में कोई पुरानी हवेली, कोई टूटा किला या कोई खंडहर शेष नहीं बचता – होटल बन जाता है या कोई मल्टीप्लेक्स। फिर कहाँ रहे भूत ? क्यों डरूं मैं भूत से?