चुईं सुधियाँ टप-टप
आँखें भर आयीं ।
कैसे अवगुण्ठन को खोल
तुम्हें हास-बंध बाँधा था
कैसे मधु रस के दो बोल
बोल सहज राग साधा था,
हुई गलबहियाँ कँप-कँप
साँसे बढ़ आयीं ।
कैसे उन आँखों की फुदकन
महसूसी थी मन के आँगन
कैसे मधु-अधरों का कंपन
गूँज गया हृदय बीच स्वर बन,
स्नेहिल अनुभूतियाँ पग-पग
अन्तर लहराई ।
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