सावन आया । आकर जा भी रहा है । मैंने कजरी नहीं सुनी, न गायी । वह रिमझिम बारिश ही नहीं हुई जो ललचाती । उन पुराने दिनों की मोहक याद ही थी जो बारिश की जगह पूरे सावन बरसती रही, और मैं भींगता रहा उसमें । बारिश के अनोखे-अनोखे अंदाज, झूला और फिर कजरी – सब आते उतराते गये । यहाँ वही कजरी – अपने उसी मीठेपन के स्मित आग्रह से कि सावनी रंग में रंगेगी यह आपको- प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
बीतल जात सवनवाँ ना ॥
धाये घन कारे कजरारे
झुरकइ लगल पवनवाँ ना,
सिहरै तन गदराइल मनवाँ
बीतल जात सवनवाँ ना ॥
रहि रहि सालइ सजनि करेजवा
सूनो लगइ भवनवाँ ना,
आली, पिय बिन विकल परनवाँ
बीतल जात सवनवाँ ना ॥
पथ ताकत अँखियाँ पथरइलीं
पिय स्वर सुनत न कनवाँ ना,
हरि-हरि रटि बिलखात सुगनवाँ
बीतल जात सवनवाँ ना ॥
के गलबहियाँ दे संग बिहरी
के सखि चाभी पनवाँ ना,
’पंकिल’ खाली परल झुलनवाँ
बीतल जात सवनवाँ ना ॥
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अभी शेष हैं कुछ मधु-कजरी-गीत अगली प्रविष्टियों के लिये ….