अहो, नंदन विपिन की विटप छाया में विराजित कवि
मुरलिका बन्द कर दो छेड़ना अब रुद्र रव लाओ
प्रलय है पल रहा हर घर लगी है आग हर कोने
तुम्हारी याद आती है चले आओ, चले आओ ।
लगा दो फिर अयोध्यानाथ के आ माथ पर चन्दन
यहाँ विध्वंस लीला शीर्ष पर, अब वन न मनसायन
हथेली एक ही कर कीं परस्पर लड़ रहीं, शोणित-
पिपासा में स्वजन रत, कवि रचो अब नवल रामायण ।
नहीं अकबर सही, लेकिन वही श्रावण, वही भारत
तुम्हारा पाञ्चजन्य निनाद स्तंभित क्यों महाबाहो !
विनय की पत्रिका लेकर तुम्हारे पास आया हूँ
हमारी प्राण-वीणा पर बजा लो गान जो चाहो ।
आ पथ दिखला दो सभी कहें अब यहाँ नहीं दख द्वंद्व रहे
तुलसी की जय, तुलसी की जय- यह नारा सदा बुलंद रहे ॥
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तुलसी के विनय के पद उत्कृष्टतम अभिव्यक्ति के उदाहरण हैं । यह भजन सुनें और सप्रेम तुलसी स्मरण करें –