मुझे मौन होना है
तुम्हारे रूठने से नहीं,
तुम्हारे मचलने से नहीं,
अन्तर के कम्पनों से
सात्विक अनुराग के स्पन्दनों से ।
मेरा यह मौन
तुम्हारी पुण्यशाली वाक्-ज्योत्सना को
पीने का उपक्रम है,
स्वयं को अनन्त जीवन के भव्य प्रकाश में
लीन करने की आस है,
सुधि में प्रति-क्षण तल्लीन करने वाली
आसव-गंध है ।
अपने स्पन्दनों के संजीवन से
मेरे प्राणों में अमरत्व भरो,
अपने स्पन्दनों से निःसृत मौन से ही
छंदों और ऋचाओं से अलभ्य
’उसे’ ढूँढ़ने की लीक दो,
और मिट्टी की गंध-सा यह मौन
साकार कर दो चेतना में
कि युगों की जमी हुई काई हट जाय,
दृश्य हो शुद्ध चैतन्य !
दिनेश नन्दिनी डालमिया के एक गद्य-खण्ड से अनुप्रेरित
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