Sarracenia ©
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प्रणय-पीयूष-घट हूँ मैं।
आँख भर तड़ित-नर्तन देखता
मेघ-गर्जन कान भर सुनता हुआ
पी प्रभूत प्रसून-परिमल
ओस-सीकर चूमता निज अधर से
जलधि लहरों में लहरता
स्नेह-संबल अक्षय वट हूँ मैं।
देखता खिलखिल कुसुम तरु
सुरभि हाथों में समेटे उमग जाता
पु्ष्प लतिका लिपट
क्षण-क्षण प्रेम-पद गाता अपरिमित
सौन्दर्य-छवि जिसमें विहरती नित
वही सुरपति-शकट हूँ मैं।
गगन होता जब तिमिर मय
जग अखिल निस्तब्ध सोता
सुन मधुर ध्वनि उस चरण की, सहज ही
आभास होता उस प्रखर आलोक का
सौन्दर्य-प्रतिमा पूजता निशि-दिन
सत्य-शिव-सुन्दर प्रकट हूँ मैं।
तृप्त मांसल रूप में भी
भग्न लुंठित स्तूप में भी
धूप में भी चिलचिलाती
हूँ अनिवर्चनीय शीतल
आर्तनाद करुण सुनता हूँ सदा पर
अट्टहास-प्रतिमा विकट हूँ मैं ।
जब भुवन-भास्कर सिधारा
कौन खग-रव मिस पुकारा
नित्य रात-प्रभात में
पिक-कीर-चातक घर निहारा
कल्पना कल्लोलिनी का
उल्लसित रोमांच तट हूँ मैं।
प्रणय-पीयूष-घट हूँ मैं।