मन, मत अपने में ही जल भुन ।।
जब शोभित नर्तित त्वरित सरित पर
वासंती चन्द्रिका धवल।
विचरता पृष्ठ पर पोत पीत
श्यामल अलि मृदुल मुकुल परिमल।
कामिनी-केलि-कान्तार-क्वणित
तुम कंकण किंकिणि नूपुर सुन ।
मन, मत अपने में ही जल भुन ।।1।।
जब खग कुल संकुल ऋतु वसंत में
होता गगन गीत गुंजित।
मनुहार प्रिया रसना नकारती
स्वीकृत करते नयन नमित।
तुम मौन मानसी शतरंगी
प्रेयसी पयोधर अम्बर बुन।
मन, मत अपने में ही जल भुन ।।2।।
जब झुकी अवनि पर पवन प्रेरिता
पीत पक्व गोधूम फली।
दिनमणि स्वागत-हित विटप वृन्त पर
तुहिन विन्दु शत सिहर हिलीं।
तुम शाश्वत सामवेद पाती
अनुराग राग गाओ गुन-गुन।
मन, मत अपने में ही जल भुन ।।3।।
जब सरसिज संकुल सर में शिशुदल
विहॅंस बिखेर सलिल सीकर।
सखि कंजमुखी के कम्बुग्रीव में
पहना देता इन्दीवर।
तुम क्यों न चूमते ललक विमल
मृदु उनके गोल कपोल अरुण।
मन, मत अपने में ही जल भुन ।।4।।
है एक ओर संसृति-संस्तुत
प्रतिमा पुराण मन्दिर ईश्वर।
है एक ओर मधु-सुधा-स्नात
रमणी अरुणाभ कपोल अधर।
हे तृप्ति-तृषित दिग्भ्रान्त पथिक
वांछित ‘पंकिल’ पथ-संबल चुन।
मन, मत अपने में ही जल भुन ।।5।
आज बिरज में होली रे रसिया: शोभा गुर्टू
चित्र साभार: फ्लिकर (बिश्वजीत दास)