मैंने तुम्हें औरतों से बतियाते कभीं नहीं देखा
और न ही -मर्दों से ऐसा सुना- किसी औरत ने
बड़ी अदब से तुम्हारा नाम लिया
अक्सर उन औरतों से जिनका पैर तुम छूते रहे हो
(अब तुम्हें क्यों इसकी जरूरत पड़ीं,नहीं जानता)
मैंने सुना की तुम एक सुयोग्य पुत्र हो
जिसे आदर्श बनने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी है।
अपने पतियों या पुत्रों से तुम्हारा परिचय पाकर
कई बार न जाने कितनी स्त्रियों के मुख खुले-से रह गए
इस एक शब्द के साथ – ‘हे भगवान!”
पर मैं
सदा तुम्हारा पैर छूते हुए –
क्योंकि तुम्हारी वक्तृत्व कला अचंभित करने वाली है –
महसूस करता हूँ तुम्हें
एक ऐसे आदमी की तरह
जिसकी जिंदगी का फलसफा बहुत कुछ
जिंदगी-सा जान पड़ता है ।
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तुम वैसे क्यों हो
जैसा आदमी नहीं होता इस दुनिया में,
इस दुनिया में आदमी
तो ‘चू’ जाता है किसी पर
समाज के लिए
बरजता है अपने ‘स्व’ को बार-बार
और हर मंच पर उपस्थित होता है
चेहरे की प्रमादी सिकुड़ने लेकर – जैसे यह सिकुड़ने ही
उसका वैभव हो।
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तुम क्या हो ?
अनुवाद की तर्ज पर रचा हुआ कोई मनुष्य!
मैंने सुना है
स्पंदित होते हो कितनों की नसों में
धाड धाड़ बजते हो कानों में अनेकों
और कितनों की कनपटी पर महावीर की मुष्टिका हो
‘शेली’ की कविता के पश्चिमी मरुत की तरह
संहारक या संरक्षक – क्या हो ?
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तुम्हारा ‘आज’ हमेशा ‘कल’ बन कर खड़ा क्यों है?
और तुम्हारे पास ‘आज के कल’ की भीड़’ नहीं
बल्कि ‘कल के आज’ की भीड़ क्यों है?
तुम्हारे अनुयायी बाघ की तरह
क्यों मुस्कराते हैं
और कोयल तुम्हारी
गीतों में गणित के सवाल हल करती है – क्यों ?
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तुम्हारे शिष्यों की लम्बी फौज
जिसने चूमे होंगे
तुम्हारे पद-नख अनगिनत मौकों पर ,
जो थकते नहीं गाते तुम्हारा यशगान
और अपने शरीर-साधन से वाहन तक पर
खोद देते हैं तुम्हारा नाम,
सच कहो –
उनके आचरण का आवरण ही तुम हो
या अंतःकरण भी ?
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मैं नहीं जानता तुम्हें
जितना जानते हैं
तुम्हारी दैनंदिन सभाओं में सम्मिलित लोग
पर कम नहीं जानता हूँ तुम्हें
क्योंकि पहचानता हूँ तुम्हारे निषेध को ।
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‘हाइकू’ है तुम्हारा जीवन —
न जाने कितने अनुभव, कितने स्पर्श, कितना साहचर्य
कितनी संवेदनाएं, कितना प्रवाह, कितने चित्र
कितनी स्थल, कितनी रेत
कितनी मरीचिका, कितना ताप
कितना विग्रह और कितना “क्या कुछ’ —
बस कुछ पंक्तियों में व्यक्त ।