मेरे पिताजी श्री प्रेम नारायण पंकिल कस्बे के इंटर कालेज में अंग्रेजी के प्रवक्ता थे। इस साल रिटायर कर गए। हिन्दी की प्रशंसनीय कवितायें लिखते हैं, उस ज़माने से जिस ज़माने में कविता आस्था और अस्तित्व से जुड़ा करती थी। इसलिए कभी कविता का बाह्य प्रकाशन नहीं हो सका। मौलिक प्रतिभा का उपयोग उन्होंने स्वान्तः-सुखाय किया- स्वान्तः-सुखाय रघुनाथ गाथा। इसलिए जो रचा वह सु-रचित तो था पर परिचित न हो सका। मैंने उन रचनाओं से अपने लिखने के संस्कार विकसित किए। कई बार लगा कि उन्हें बाहर आना चहिये अपनी खोह से,पर संसाधन और प्रयास की कमी ने दरवाजा खुलने न दिया।
आज जब अपनी लेखनी के उपकरण अपर्याप्त और अनुपयुक्त प्रतीत होने लगे हैं, तो उस लेखनी की साधना का भान होने लगा है। मन करता है कि भीतर उठता हुआ उद्वेग उनकी समस्त रचनाओं के प्रकाशन से शांत करूँ। मेरी लेखनी पर चढा हुआ ऋण उतार सकूं शायद। पर शायद ही।
शुरुआत देर से ही सही पर कर रहा हूँ। उनकी मौलिक कविताओं, नाटकों , ललित निबंधों पर ख़याल बाद में करूँगा, पहले गुरुदेव रवीन्द्र की कालजयी ‘गीतांजलि‘ के कुछ गीतों का गीतात्मक, काव्यात्मक भावानुवाद पिताजी श्री प्रेम नारायण पंकिल ने किया था- वही अपने इस चिट्ठे पर लिख रहा हूँ। शायद यह कुछ गंभीर रचनाधर्मिता का प्रयास दिखायी पड़े। पिताजी के संतोष और मेरे गर्व का साधन बन सके। मैं अंग्रेजी मूल के साथ बाबूजी का भावानुवाद लिख रहा हूँ। कल से।