नामवर सिंह के व्यक्तित्व-कृतित्व पर लिख पाने की अपनी सामर्थ्य कम आँकता हूँ। एक जगह बोलने के लिए तैयारी की थी, कुछ लिखा, सँजोया था। वही लिख रहा हूँ- इस आशा से कि यदि पढ़ें इसे आप तो मुझे संज्ञान दें।
हिन्दी समीक्षा का सौभाग्य है कि श्री नामवर सिंह जी जैसी मनीषा उसकी मंजूषा की धरोहर है। Genius और Talent का एकत्र अद्भुत संयोग। विरल होता है ऐसा व्यक्तित्व। “Genius means a transcendent capacity for taking trouble.”(Carlyle) और Meredith की माने तो- “Genius does what it must and talent does what it can.” श्री नामवर जी ऐसी ही विवेचनात्मक प्रतिभा के धनी हैं।
नामवर की विवेचनात्मक प्रतिभा दृष्टि पर ज्यादा जोर देती है, दृष्टिकोण पर नहीं। गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित पुनश्चर्या पाठ्यक्रम के अवसर पर उद्घाटन भाषण देते हुए नामवर जी स्पष्ट करते हैं- “दृष्टिकोण में कोण के बजाय मैं दृष्टि पर ज्यादा जोर देता हूँ, क्योंकि दृष्टि की एक चीज है। दृष्टि में आंसू भी आ गए, आँखें लाल भी होती हैं। साहित्य की क्षमता ही है, जो देखने का काम नहीं करती, बल्कि आँख जिससे नम भी होती है, और क्योंकि अनुभव भी ह्रदय से सराहा जाता है, भाव-अनुभूति, इन्द्रिय बोध से सत्य जाकर के – साहित्य का संयोजन बनता है।” (प्रगतिशील वसुधा, अप्रैल-जून 2005)।
इतिहास के न्याय से परिचित हैं नामवर
नामवर पर आरोप हैं कि वह इतिहास के पन्नों पर अपना नाम लिखवा लेना चाहते हैं। इसलिए वह इतिहास की बनी बनाई मान्यताओं को पुनर्विश्लेषित करते हैं। पर क्या नामवर इतिहास के न्याय से परिचित नहीं? खूब परिचित हैं। वे जानते हैं कि यह समय सब कुछ को नष्ट किए जाने को देखते रहने का नहीं है, बचे हुए को बचाने का भी है।
इतिहास कि थाती स्वयं अपनी छाती खोले खड़ी है। रत्न खोजता नहीं, खोजा जाता है- “न रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत्”। इतिहास के द्वार पर जी हजूरी करना उनके लिए तो रवींद्र के शब्दों में वैसा ही है जैसे- “The bird thinks it is the act of kindness to give the fish a lift in the air.”
श्री काशीनाथ सिंह से नामवर जी की वार्ता पढ़ी है। काशीनाथ जी ने पूछा- “हर शिखर पर हैं आप उपलब्धि के। वह क्या है जो नहीं मिला है?
उनका उत्तर था- “समाधीस्थ चित्त की वह दशा जिसमें मनोवांछित की रचना सम्भव होती है।
“किनके आगे आप का सिर झुकता है?” “ज्ञानवृद्ध के”।
“कोई ऐसा वाद विवाद या संवाद, जिसमे बदला लेने या सबक सिखाने का भाव मन में रहा हो?”
“बदला किससे? सबक किसको? जो भी आरोप व्यक्तिगत लगा अनदेखा किया। वाद-विवाद-संवाद उन्हीं से किया जो बराबर के हैं या कुछ बड़े हैं। सहयोगी प्रयास के तहत। यहाँ तक कि ‘दस्ते अदू’ के साथ भी, फैज के अंदाज में ‘सलूक जिससे किया मैंने आशिकाना किया।“
ऐसा व्यक्तित्व इतिहास की कोठरी में कैद होने को बेचैन नहीं है। यह हमारे पास आता है, आप के पास जाता है, इतिहास के पास नहीं-
दिले वहशी को ख्वाहिश है तुम्हारे दर पै आने की
दीवाना हो वो लेकिन बात कहता है ठिकाने की।
अभी बस इतना ही।