“ऐसी मँहगाई है कि चेहरा ही
बेंच कर अपना खा गया कोई।
अब न अरमान हैं न सपने हैं
सब कबूतर उड़ा गया कोई।”
एक झोला हाँथ में लटकाये करीब खाली ही जेब लिये बाजार में घूम रहा हूं। चाह स्याह हो रही है। देख रहा हूँ, मँहगाई की मार से बेहाल हुई जिन्दगी बेढंगी चाल चलने लगी है। मुनाफ़ाखोरी की हवा खोरी-खोरी चक्रमण करने लगी है। अब तो “साँकरी गली में मोहिं काँकरी गरतु है।”
अंग्रेजी कवि कीट्स ने नाइटिंगल का गीत सुनकर आह्लादित हृदय से कहा था –
“Still let me sleep embracing clouds invain
And never wake to feel the days disdain.”
फ़िर झट ही कीट्स ऐसे ही तिलमिला गया होगा, और कह उठा –
“Fancy, Thou cheat me.”
मन अजीब हो गया है। जहाँ देखता हूँ आग लगी है। हर माह देखता हूँ, मिट्टी का तेल लेने की लाइन में टिन लेकर खड़ा होता है, मेरे कस्बे का किशोर; धक्का-मुक्की में सिर फ़ट जाता है। इसी भाग्य को लेकर कमोबेश नौजवानी ठोकर खा रही है। वोट की राजनीति, कोट की किरिच और नोट की फ़ितरत में एक व्यूह रचना कर दी गयी है। इसमें सातवें फ़ाटक पर ही सही, अभिमन्यु मारा जायेगा ही। कोई राह निकलनी चाहिये –
“यही रात मेरी, यही रात उनकी,
कहीं बढ़ गयी है,कहीं घट गयी है।”