दूसरों के अनुभव जान लेना भी व्यक्ति के लिये अनुभव है। कल एक अनुभवी आप्त पुरुष से चर्चा चली। सामने रामावतार त्यागी का एक गीत था- कर स्वयं हर गीत का शृंगार। प्रश्न था- वास्तविकता है क्या?
“वस्तुतः, तत्वतः, यथार्थः अपने को जान लेना ही अध्यात्म है, और यही वास्तविकता है,” उसने गम्भीर स्वर में मुझे प्रबोध दिया।
बात ही बात में बात और बढ़ती गयी। उधर से एक बात कलेजे में घुस गयी और एक बात सहजता से समझा दी गयी -“सर्व-सर्वत्र जागरण’। होश सम्हालो। सब की सहज स्वीकृति ईश्वर के प्रसाद के रूप में सिर माथे लगाओ। बैठो नहीं, बढ़ो तो।
रोक सका संकल्पबली को कौन आज तक बोल / अमृत सुत! सोच दृगंचल खोल।
वस्तुस्थिति को तह पर तह सजा कर रखता गया वह। बोला, “लम्बे होते नारियल के पेड़ों को छाया की अनुपयोगिता में नहीं, आकाशभेदक साहस के सौन्दर्य में समझना होता है। आकाश बुलाया नहीं जाता बाहों में भरने के लिये । सिर्फ़ बाहें फ़ैलानी काफ़ी होती हैं। वह उनमें भरा होता है।”
“चाँदी की उर्वशी न कर दे युग के तप-संयम को खंडित
भर कर आग अंक में मुझको सारी रात जागना होगा।”
“इसलिये तेरे सूने आंगन में दुख़ भी मेहमान बन कर आये तो उसे ईश्वर से कम मत समझना। अपने किसी भी आंसू को व्यर्थ मत मानना। समुद्र उसको माँगने पता नहीं कब तेरे दरवाजे आ जाय।”
तब से बार-बार इन पंक्तियों का फ़ेरा मेरे स्मृति-पटल पर हो रहा है-
पास प्यासे के कुँआ आता नहीं है
रामावतार त्यागी
यह कहावत है, अमर वाणी नहीं है,
और जिसके पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है।
कर स्वयं हर गीत का शृंगार
जाने देवता को कौन-सा भा जाय।