प्रेम पत्रों का प्रेमपूर्ण काव्यानुवाद: पाँच
Capture of Love Letters |
अब तक जो मैं हठ करती थी, हर इन्सान अकेला होता
मुझे पता क्या था जीवन यह अपनों का ही मेला होता।
यही सोचती थी हर क्षण केवल मनुष्य अपने में जीता
उसके लिये नहीं होता जग, ना वह किसी और का होता।
किसी एक का, किसी एक से मिलना परम असम्भव है
अलग-अलग दो अस्तित्वों का होना एक कहां सम्भव है?
ऐसे भाव भरे थे मन में मैं बेकल होकर जीती थी
एकाकी मैं किससे कहती मुझ पर कब क्या-क्या बीती थी?
तभी-तभी तो तुम आये थे, सत्य मिला था, सत्व मिला था
मेरे अन्तस में भी तेरे वृहत रूप का फ़ूल खिला था।
अब तो प्रियतम दशा वही है, भूल गयी हूं निज को अपने
विस्मृत जग है, कण-क्षण विस्मृत,पाकर इस सुरभित को अपने।
बस करती हूं, आज यहीं तक, प्राण! मुझे रह जाने दो
अपने प्रेम-सरित को मेरे हृदय जगत पर बह जाने दो।
Leave a Comment