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क्यों ऐसा होता था
कि डाकिया रोज आता था
पर तुम्हारा लिखा हुआ पत्र
नहीं लाता था।
क्यों ऐसा होता था
कई बार
कि जब भी मैंने
डाकिये से माँगा तुम्हारा पत्र
उसने थमा दिये मनीआर्डर के रुपये
जो पत्रिकाओं, अखबारों में छपी
कविताओं के पारिश्रमिक थे
कि उसके कहने पर
कि एक जरूरी लिफाफा है तुम्हारे नाम
मैं पहुँचता था डाकघर तो
वह थमा देता था एक लिफाफा
किसी लिखित परीक्षा, साक्षात्कार का।
क्यों ऐसा होता था
बार बार
कि उसकी लाई हुई पत्रिकाओं,
पुस्तकों के सूची-पत्रों में
हर पंक्ति मुझे तुम्हारी लिखी हुई
पाती जैसी दिखती थी
कि उसकी लायी अनेक रसीदों में
अंकित जोड़-घटाव
मुझे अपने जीवन के
जोड़-घटाव मालूम पड़ते थे।
क्यों ऐसा होता था
हर बार
कि निराश होकर
कि अब नहीं आयेगा तुम्हारा पत्र
छटपटाते हुए यह बताने के लिये
कि जिस पते पर रख छोड़ा था तुमने मुझे,
अभी भी मैं वहीं हूँ,
मैं जब भी लिख कर
छोड़ने जाता था पत्र डाकघर में
सोचने लगता था
वहाँ भी डाकिया होगा?