राह यह भी है तुम्हारी राह वह भी है तुम्हारी
कौन सी मेरी गली है यह न मैं चुन पा रहा हूँ ।
राह की चर्चा बहुत की पर न चलता रंच भर भी
मैं कहीं का हो न पाया क्षण इधर भी क्षण उधर भी ।
एक क्या अनगिन तुम्हारा बज रहा अनहद बधावा
मैं बधिर अति पास का ही स्वर नहीं सुन पा रहा हूँ ।
द्वार तुम खटका रहे मिटती न पर निद्रा हमारी
विभव तेरा रख न पाता मैं भिखारी का भिखारी ।
एक क्या अनगिनत गीतों का पठाते हो खजाना
गुनगुनाने के लिये पर मैं नहीं धुन पा रहा हूँ ।
माथ पर रख दो हमारे पाँव जी ललचा रहा है
बिन तुम्हारे कौन अपना जो सहर्ष बुला रहा है ।
है सुना बँधते विवश हो प्रेम के ही पाश में तुम
पर अकिंचन मैं नहीं वह डोर ही बुन पा रहा हूँ ।
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