न गयी तेरी गरीबी तुम्हें माँगने न आया
खूँटी पर उसके कपड़ा तुम्हें टाँगने न आया ।
दिन इतना चढ़ गया तूँ अभीं ले रहा जम्हाई
गाफिल है नींद में ही तुम्हें जागने न आया ।
एक अंधे श्वान सा तूँ रहा भूँकता हवा में
असली जगह पे गोली तुम्हें दागने न आया ।
खुद रूप रंग रस की जलती चिता में कूदा
उस आग से निकलकर तुम्हें भागने न आया ।
चिथड़े में ही ठिठुर कर सारी उमर गंवा दी
सुधि रेशमी रजाई तुम्हें तागने न आया ।
Leave a Comment