बचपन से देवेन्द्र कुमार के इस गीत को गाता-गुनगुनाता आ रहा हूँ, तब से जब ऐसे ही कुछ गीत-कवितायें गाकर विद्यालय के पुरस्कार झटकने का उत्साह रहा करता था। आज बुखार में तपता रहा सारे दिन। कई बार बोझिल मन पूर्व-स्मरण में खो जाता रहा। याद आये वे क्षण जब स्कूल में यह गीत गाकर खूब खुश हुआ था। उत्साह भर गया मन में। बुखार ने थोड़ा सा अवकाश दिया, तो जैसी तैसी आवाज में रिकॉर्ड कर आपके सामने प्रस्तुत किये दे रहा हूँ। आपको भी स्कूल के निर्णायकों-सा समझ रहा हूँ, मैं भी तो अभी अबोध ही हूँ।
एक पेड़ चाँदनी लगाया है आँगने
फूले तो आ जाना एक फूल माँगने।
ढिबरी की लौ जैसे लीक चली आ रही
बादल का रोना है बिजली शरमा रही
मेरा घर छाया है तेरे सुहाग ने।
तन कातिक मन अगहन बार-बार हो रहा
मुझमें तेरा कुआर जैसे कुछ बो रहा
रहने दो वह हिसाब कर लेना बाद में।
नदी, झील, सागर से रिश्ते मत जोड़ना
लहरों को आता है यहाँ-वहाँ छोड़ना
मुझको पहुँचाया है तुम तक अनुराग ने।
–देवेन्द्र कुमार
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