समय की राह से
हटा-बढ़ा कई बार
विरम गयी राह ही,
मन भी दिग्भ्रांत-सा
अटक गया इधर-उधर ।
भ्रांति दूर करने को
दीप ही जलाया था
ज्ञान का, विवेक का,
देखा फिर
खो गयीं संकीर्णतायें
व्यष्टि औ’ समष्टि की ।
स्व-प्राणों के मोह छोड़
सूर्य ही सहेजा था
उद्भासित हो बैठी, और कौन ?
अन्तर की प्रज्ञा ही;
अंधकार दुबक गया
मेरे अवांछित का,
अंधापन सूरज की
आग में दहक गया ।
राह खुली कौन-सी ?
अतिशय आनन्द की,
हार गया तन भी
डूब गया मन भी ।
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