तुम्हें सोचता हूँ निरन्तर
अचिन्त्य ही चिन्तन का भाव बन जाता है
ठीक उसी तरह,
जैसे, मूक की मोह से अंधी आँखों में
आकृति लेते हैं अनुभूति के बोल,
जैसे,किसी प्रेरणा की निःशब्द गति भर देती है
सुगन्ध से मेरी अक्रिय संवेदन-दृष्टि को,
जैसे फूट पड़ता है ठंडे पानी का सोता
किसी निस्पन्द शिला से,
और जैसे, मृत्यु के माथे पर
जीवन के ओज-रस से भरे फूल खिलते हैं ।
ऐसे ही मैं
सोचता हूँ तुम्हें निरन्तर ।
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