स्त्रियोचित प्रतिभाओं में सर्वाधिक प्रशंसित और आकर्षित करने वाली प्रतिभा उनका मधु-स्वर-संपृक्त होना है। स्त्री का मधुर स्वर स्वयं में अनन्त आनन्द का निर्झर-स्रोत है। यह अनावश्यक नहीं कि वृक्ष-दोहद की महत्वपूर्ण क्रिया जो अनेक स्त्री-क्रिया-व्यवहारों से सम्पन्न होती हो उसमें स्त्री के गायन मात्र से पुष्पोद्गम या वृक्षॊ के विकास के कार्य सम्पादित होने का कोई उल्लेख हो! स्त्री के इस सु-स्वभाव और नमेरु के सुरूप ने अत्यन्त आकर्षित किया मुझे। सुन्दरी स्त्रियाँ मदमस्त होकर गा उठें तो खिल उठेगा नमेरु। कवि प्रसिद्धि है कि स्त्रियों के गान से नमेरु स्वतः ही विकसित होकर खिलखिला उठता है, और शायद यही मधुगान ही नमेरु में पुंकेसरों के स्वरूप में अभिव्यक्त हो उठता है।
नमेरु की विरदावली कालिदास ने भी गायी है। सुरपुन्नाग कहा जाने वाला नमेरु कालिदास के काव्य कुमारसंभव में यत्र-तत्र उल्लिखित है। शिव की तपस्या भंग करने कामदेव जब शिव-स्थान कैलाश पहुँचे तो उन्हें इस पुष्प-वृक्ष की ओट ही मिली छिपने को- नन्दी की आँख बचाकर कामदेव इस वृक्ष की घनच्छाय आकृति के पीछे हो लिये और धीरे-धीरे शिव के समाधिस्थान तक पहुँच गये-

दृष्टिप्रपातं परिहृत्य तस्य कामः पुरः शुक्रमिव प्रयाणे।
प्रान्तेषु संसक्तनमेरुशाखं ध्यानास्पदं भूतपतेर्विवेश॥

शिव का समाधिस्थल तो इन नमेरु वृक्ष की शाखाओं की छाया से आच्छन्न था ही, शिव के गण भी नमेरु पुष्पों के विभिन्न आभूषण धारण कर पार्वत्य औषधों से व्याप्त उन शिलाओं पर आसीन थे। कालिदास की लेखनी का मनोहारी स्वरूप देखिये-

“गणा नमेरुप्रसवावतंसा भूर्जत्वचः स्पर्शवतीर्दधानाः।
मनःशिलाविच्छुरिता निषेदुः शैलेयनद्धेषु शिलातलेषु॥”

नमेरु की रमणीयता का जितना उल्लेख कालिदास के काव्य में है, अन्यत्र नहीं। अन्य स्थानों पर, औषधि ग्रंथों में जरूर इसका विभिन्न नामों के व्यवहार से उल्लेख किया गया है और इसकी औषधि-उपयोगिता पर प्रकाश डाला गया है। भारत में दक्षिण कोंकण से मालाबार तक तथा कोयम्बटूर में समुद्रतटीय प्रदेशों में यह स्वयंजात और बोये जाने वाला वृक्ष अनेक स्थानों और अनेक भाषाओं में भिन्न-भिन्न नामों से व्यवहृत है। पुन्नाग, सुरपुन्नाग, सुल्तान चम्पा, सुरपर्णिका, सुरतुंग, सुरेष्ठ, नागपुष्प, प्रमुखः, तुंग, सुरपुन, उंडी आदि नाम नमेरु के ही हैं। औषधीय ग्रंथों में लाल नागकेशर के नाम से व्यवहृत यह पुष्प असली नागकेशर का छद्म रूप धारण कर पंसारियों की दुकान से बिकता है और उन्हें मालामाल करता है।

कैसा है यह नमेरु? (Callophyllum inophyllum or Alexandrian Laurel)

यद्यपि नमेरु के वृक्षों का स्वाभाविक विकास तनिक मद्धिम है, फिर भी यह सदाबहार, छायादार वृक्ष बड़े-बड़े प्रांगणों और सड़कों के किनारे लगाया जाता है। इसकी गोलाई लेती हुई मोटी चिकनी पत्तियाँ, सुन्दर सुरंग पुष्प और उनके मध्य पीत पुंकेसर, उनसे रंग-साम्य रखती हुई डंठल और सबसे बढ़कर हल्की मीठी सुगंध किसे खींच न लेगी अपनी ओर! चित्रों में दिख रहा हरित पीत फल भी बड़े काम का है। पुराने दिनों में इससे निकाला तेल इंधन के तौर पर प्रयुक्त हुआ करता था। इसे पिन्नाई या डिलो तेल कहा जाता था।
चिकनी सतह वाले नमेरु के पुष्प व फल त्वचा को चिकनी भी बना सकते हैं और अल्सर जैसी अन्य बीमारियाँ भी दूर कर सकते हैं। लघु गुण, कषाय रस, कटु विपाक, कफ-पित्तशामक, दुर्गंधनाशक, स्वेदापनयन, रक्तस्तम्भक आदि प्रधान कर्म वाला यह पुष्प-वृक्ष सुश्रुतोक्त एलादि गण, प्रियंग्वादिगण एवं अञ्जनादिगण आदि में उल्लिखित है। और अच्छा तो और लगने लगता है यह नमेरु तब जब यह अनुभव करता हूँ कि जिस कम्प्यूटर से यह नमेरु-पाती लिख रहा हूँ, उसका कैबिनट भी बन सकता है नमेरु वृक्ष की लकड़ियों से, और नाव भी बन सकती है, और रेलवे के शयनयान की सीट भी बन सकती है और प्लाइवुड भी क्योंकि इसकी लकड़ियाँ विश्वसनीय और दीर्घावधि उपयुक्त जो होती हैं। अब बस!

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