कवि समय की प्रसिद्धियों में अशोक वृक्ष के साथ सर्वाधिक उल्लिखित प्रसिद्धि है बकुल वृक्ष का कामिनियों के मुखवासित मद्य से विकसित हो उठना। बकुल वर्षा ऋतु में खिलने वाले पुष्पों मे कदम्ब के पश्चात सर्वाधिक उल्लेखनीय़ पुष्प है। हिन्दी में मौलसिरी के नाम से विख्यात यह पुष्प सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में अपनी सुगंधि के कारण प्रेम और सौन्दर्य के प्रतीक के रूप में वर्णित है। अपने विशाल आकार, घनी छाया और आमोदमय पुष्पों के कारण यह साधारण जन और कवि दोनों का परम प्रिय है।
साहित्य एवं शास्त्रों में बकुल
बकुल हिन्दुओं के मध्य एक पवित्र पौधे के रूप में प्रतिष्ठित है एवं अनेकों धर्मग्रंथों व प्राचीन संस्कृत ग्रंथो में इसका अन्यान्य स्थलों पर पर्याप्त उल्लेख है। स्वर्ग-पुष्पों में स्थान प्राप्त यह पुष्प पुराणों में प्रतिष्ठित है। कहते हैं यमुना किनारे इसी बकुल वृक्ष के नीचे खड़े होकर कृष्ण बाँसुरी बजा-बजा कर गोपांगनाओं का मनरंजन किया करते थे। रामायण में वसंत ऋतु में इसका खिलना वर्णित है और महाभारत में भी। ’अय्यर’ (Aiyer) ने अपनी पुस्तक “The antiquity of some field and forest flora of India’ (1956) में संकेत किया है कि बकुल गंधमादन पर्वत पर विकसित पुष्प-वृक्षों (रामायण) एवं युधिष्ठिर की राजधानी इन्द्रप्रस्थ में रोपित वृक्षों (महाभारत) में से एक है। वाल्मीकि रामायण में भी पम्पासर वन, लंका के अशोक वन आदि स्थानों पर इस वृक्ष के होने के संकेत है।
साहित्य में राजशेखर ने इसके वसंत-विकास का वर्णन किया है, इसी संदर्भ में इस कवि प्रसिद्धि का भी समर्थन होता है जिसमें कहा गया है कि बकुल स्त्रियों की मुख मदिरा से सिंचकर पुष्पित हो उठता है-
“नालिंगितः कुरबकस्तिलको न दृष्टो नो ताडितश्च चरणैः सुदृशामशोकः।
सिक्तो न वक्त्रमधुना बकुलश्च चैत्रे चित्रं तथापि भवति प्रसवावकीर्णः॥” (काव्यमीमांसा)
जयदेव के गीतगोविंद में भी इस पुष्प के वसंत विकास की चर्चा है। कालिदास इस पुष्प को वसंत और वर्षा दोनों ऋतुओं में वर्णित करते हैं। वस्तुतः यह खिलता तो है वसंत के अंत में और शरत्काल तक खिलता रहता है। शरत्काल तक आते-आते इसके पुष्प मादक गंध से भर जाते हैं। शायद इसीलिये निघंटुकारों ने इसका एक नाम ’शीधुगंध’ रखा है।
कालिदास को फूलों का वर्णन बहुत रुचता है। बकुल पुष्प भी कालिदास के काव्य में सर्वत्र उल्लिखित है। रघुवंश में बकुल की सर्वोल्लिखित प्रसिद्धि का उल्लेख है तो अभिज्ञानशाकुंतल में इसी प्रसिद्धि के विवरण के साथ यह सूचना भी कि बकुल के यह पुष्प सूर्यातप से मुरझा कर भी अपनी सुगंध नहीं खोते। कुमारसंभव एवं ऋतुसंहार में इस पुष्प को केसर नाम से व्यवहृत करते हैं कालिदास। मेघदूत की यह पंक्ति तो प्रतिष्ठित है ही-
[हे मेघ ! क्रीड़ाशैल पर, कुरबक वृक्षों की पाँत वाले वासन्ती लता-मण्डप के समीप रक्ताशोक एवं सुन्दर बकुल के दो वृक्ष लगे हुए हैं । उनमें से एक रक्ताशोक – मेरे साथ आपकी सखी के बाँए पैर के ताड़न का अभिलाषी है । दूसरा बकुल – प्रफुल्लित होने के लिये आपकी सखी के मुख की मदिरा उच्छिष्ट रूप में चाहता है ।]
औषधीय गुण एवं वैज्ञानिक विशिष्टताएँ
सघन चिकने पत्रयुक्त, सदा हरित मध्यम कद का यह वृक्ष अपेक्षाकृत छोटे और सीधे काण्डस्कण्ध (Trunk) वाला होता है, जिससे शाखा प्रशाखायें निकल कर चारों ओर फैली रहती हैं। पत्तियाँ चिकनी व अग्र पर यकायक नुकीली होती हैं। इसके पुष्प सफेद रंग के तथा अत्यंत सुगंधित होते हैं, जो या तो अकेले या मंजरियों में निकलते हैं। फल (Berry) इसके १ इंच तक लम्बे, कच्चेपन में हरे और पकने पर पीत या नारंग-पीत वर्ण के होते हैं। प्रत्येक फल में एक बीज होता है, जो अंडाकार किन्तु चपटा और चमकीले भूरे रंग का होता है। ग्रीष्म से शरत्काल तक इसमें पुष्प आते हैं, बाद में फल लगते हैं।
बकुल के पुष्प अपनी मनोरम सुगंध के कारण मनःप्रसादकर होते हैं। गुरु गुण, कटु काषाय, कटु विपाकी, कफपित्तशामक, स्रावस्तम्भक, गर्भाशय शैथिल्यहर, ज्वरघ्न, विषघ्न कर्म वाले बकुल वृक्ष की छाल में टैनिन, रंजक द्रव्य, वैक्स, स्टार्च एवं क्षार या भस्म पायी जाती है। फूलों में एक सुगंधित उड़नशील तैल पाया जाता है। फलमज्जा में शर्करा तथा सैपोनिन की उपलब्धता होती है। यूनानी मतानुसार बकुल के पुष्प गरम और खुश्क तथा फल एवं छाल शीत एवं रुक्ष होते हैं।