Art thou abroad on this stormy night
on the journey of love, my friend ?
The sky groans like one in despair.
I have no sleep to-night. Ever and again I open
my door and look out on the darkness, my friend ?
I can see nothing before me. I wonder where lies
thy path !
By what dim shore of the ink-black river, by
what far edge of the frowning forest,
through what mazy depth of gloom art
thou threading thy course to come to me,
my friend ?
–(Geetanjali : R.N. Tagore)
इस झंझावाती रजनी में स्नेहाविल यात्रा के सहचर
क्या दूर सुहृद ! प्रियतम ! निराश चित्कार रहा अम्बर-अन्तर ।
निद्रा विरहित पट खोल सुहृद मैं तिमिर बीच झाँकता रहा
विस्मित विस्फारित नयन खोल खोजता तुम्हारा पंथ कहाँ
कुछ भी न सूझ पड़ता आगे हो कहाँ तिमिर में मित्र प्रवर –
क्या दूर सुहृद ! प्रियतम ! निराश चित्कार रहा अम्बर-अन्तर ।
मसि तममय किस सरि के तट पर किस उद्वेलित वन कोने में
किस गहन धुंध में तुम विलीन हो गये स्वयं को खोने में
क्या मुझ तक आने का ताना बाना बुनते हो पंकिल कर –
क्या दूर सुहृद ! प्रियतम ! निराश चित्कार रहा अम्बर-अन्तर ।